July 04, 2023

Question 30

Question  30.

प्रश्न 30.

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Lasting Relationships :

Why Relationships don't last? 

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रिश्ते वास्ते कब, कैसे और क्यों ख़त्म हो जाते हैं? 

उत्तर / Answer :

पहले कभी मैंने "अर्थ और प्रयोजन" शीर्षक से एक पोस्ट लिखा था। यहाँ उसी विषय को पुनः

" अर्थ या प्रयोजन"

के सन्दर्भ में लिख रहा हूँ।

प्रयोजन और अर्थ का परस्पर संतुलन और सामञ्जस्य हो तो दोनों एक दूसरे के पर्याय हो जाते हैं। और यदि ऐसा न हो तो दोनों एक दूसरे के विपर्याय हो जाते हैं। परिवर्तनशीलता जीवन का नित्य सत्य है। जीवन इस दृष्टि से सतत द्वैत है। फिर यही द्वन्द्व, दुविधा हो जाता है। कुछ पंक्तियों में :

जीवन से लंबे हैं बन्धू!

ये जीवन के रस्ते!

इक पल रोना होगा, बन्धू, 

इक पल चलना हृषीकेशं, 

ये जीवन के रस्ते!  

राहों से राही का रिश्ता,

कितने जनम पुराना!

एक को आगे जाना होगा, 

एक को पीछे आना!

मोड़ पे रुक मत जाना, 

(बन्धूऽऽऽऽ)

दोराहे पे फँस के!

ये जीवन के रस्ते! 

जीवन से लंबे हैं बन्धू,

ये जीवन के रस्ते! 

जैसे ही जीवन में किसी लक्ष्य, आदर्श या गन्तव्य कक विचार या कल्पना कर ली जाती है, मन अतीत की स्मृति के आधार पर ही ऐसा कर पाता है। इस लक्ष्य, आदर्श या गन्तव्य आदि का विचार उस स्मृति के ही परिप्रेक्ष्य में होता है। अर्थात् यह वर्तमान से सर्वथा विच्छिन्न किसी कल्पित भविष्य का सपना होता है, न कि जीवन का नित्य और वर्तमान सत्य। 

फिर ऐसा ही मन संबंधों के अर्थ और प्रयोजन का चिन्तन करने लगता है। पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार स्मृति भी (मन की) अन्य वृत्तियों की तरह मन की एक वृत्ति ही है। स्मृति अतीत है, अर्थात् अतीत का विचार, इसी तरह इस स्मृति के ही प्रारूप में किसी भविष्य का विचार या कल्पना उसी अतीत में लौटना है, जिसकी अति इति हो चुकी है। इस इंद्रियगम्य भौतिक जगत में स्मृति के आधार पर कुछ अकाट्य, अचल नियमों की स्थापना और आविष्कार किया जा सकता है और बौद्धिक दृष्टि से वह सब के लिए सत्य और तर्कसंगत भी है ही, इस पर संदेह नहीं, किन्तु मन नामक वस्तु, जो कि वैयक्तिक जीवन है, जो अनेक भावनाओं और भावदशाओं की सम्मिलित अनुभूति है, उसके बारे में भौतिक विज्ञान कोई तय नियम नहीं खोज सका है।

अतीत ही मन के संदर्भ में समस्त ज्ञात (known) है। अतीत ही संस्कारित मन (conditioned mind) है। संस्कारित मन अभ्यास habit या आदत, पुनरावृत्ति है, जो कि किसी यंत्र के लिए तो आवश्यक है, किन्तु जीवन जो सजगता है, इस जीवन और मन की सजगता, अभ्यास की पुनरावृत्ति से कुंठित होने लगती है, इसलिये मनुष्य जितना अधिक अभ्यस्त (संस्कारित / conditioned) होने लगता है, उतना ही अधिक यांत्रिक भी हो जाता है। खेल खेलना, कार, कंप्यूटर या मोबाइल चलाना तो अवश्य ही अभ्यास पर निर्भर है, किन्तु जैसे जैसे आप इसमें कुशल, दक्ष और प्रवीण हो जाते हैं जीवन से उतने ही अधिक दूर होने लगते हैं। "नयापन" का जो आकर्षण प्रारंभ में होता है वह आगे जाकर बोझिल, निरर्थक और ऊबाऊ लगने लगता है। "तो हम क्या करें" का प्रश्न मन में आते ही हम पुनः उसी दिशा में, और भी अधिक प्रगति, "विकास" या "उन्नति" करने के बारे में सोचने लगते हैं। यह सब एक यांत्रिक चक्र में घूमते रहने की तरह है, और भले ही यह चक्र वृत्तीय (circular) से बदलकर कुन्डली (spiral) की तरह ही क्यों न हो जाए, हम इसे देख या समझ पाने में विफल हो जाते हैं और यह तक नहीं जान पाते हैं  कि त्रुटि कहाँ हुई!

पातञ्जल योगदर्शन इस दृष्टि से अनूठा है कि उसमें अभ्यास के महत्व को रेखांकित किया गया है, और श्रीमद्भगवद्गीता की ही तरह "कर्म"और "कर्ता" की अवधारणा को सत्य "मानकर" उस आधार पर वृत्ति के निरोध, एकाग्रता और समाधि के प्रयोग से "संयम" के द्वारा सिद्धियों की प्राप्ति और व्यर्थता की ओर भी संकेत किया गया है। अन्ततः कैवल्यपाद के अंतिम योग-सूत्र में

"पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।।"

के माध्यम से पुरुषार्थ (कर्म) तथा गुणों के प्रतिप्रसव को ही कैवल्य अर्थात् चितिशक्ति की स्वरूप में प्रतिष्ठा का पर्याय कहा गया है।

श्रीमद्भगवद्गीता में इसे ही अध्याय ५ में :

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

स्पष्ट किया गया है।

अब हम इस प्रश्न पर आएँ, कि रिश्ते कब कैसे और क्यों ख़त्म हो जाते हैं?

स्पष्ट है कि सभी रिश्ते या संबंध द्वैत-मूलक होते हैं और केवल "मान्यता" ही होते हैं। उनकी सत्यता संदिग्ध ही होती है। किन्तु  विचार और विचारकर्ता के संबंध पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट होगा कि यह संबंध यद्यपि अत्यन्त घनिष्ठ और स्थायी भी जान पड़ता है, मूलतः एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह एक दूसरे से अभिन्न होता है। विचारकर्ता विचार का छायाचित्र होता है। जैसा कि सूरज की धूप में हवा से इधर उधर दौड़ते मेघों का धरती पर पड़ती उनकी छाया से होता है।

छाया का अस्तित्व मेघों और सूरज दोनों पर ही निर्भर होता है, ठीक उसी तरह "विचारकर्ता" का अस्तित्व विचार-रूपी मेघों और चेतना रूपी सूर्य के प्रकाश पर आश्रित होता है। छाया की तुलना में मेघ स्थायी होते हैं और मेघों की तुलना में सूरज नित्य। इसलिए सूरज, मेघों और छायाओं का परस्पर संबंध अस्थायी और क्षणिक होता है। यह क्षणिकता कितनी ही अल्प या दीर्घ प्रतीत हो, इसका अन्त अवश्यंभावी है।

यह है समस्त संबंधों की अस्थिरता और अनिश्चितता का रहस्य।

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