प्रणश्यति / विनश्यति
पत्रकार महोदय से परिचय होने के दूसरे ही दिन उन्होंने अपना उद्देश्य प्रकट कर दिया। वे बोले 'सर' वैसे तो आपका नाम लिए बिना ही आपके विचारों की चर्चा हम सबसे किया करते थे और इन विचारों को ही 'नोट्स' में लिख लिया करते थे, जिसे डायरी भी कह सकते हैं। वहाँ भी उन्होंने आपका नाम कहीं नहीं लिखा लेकिन जैसा कि लोगों को और खासकर मुझे पता चला, इसमें संदेह नहीं कि उन विचारों का स्रोत आपकी ही प्रेरणा से उत्पन्न उनका निजि चिन्तन था। चूँकि इसका कोई ठोस प्रमाण भी मेरे पास नहीं है, इसलिए जब आपके बारे में पता चला तो उनके उन 'नोट्स' को संपादित और संशोधित करने का दायित्व मैंने स्वेच्छया स्वीकार कर लिया। और इसलिए इस कार्य में आपसे मदद लेने मैं आपके पास आया हूँ।
पत्रकार महोदय ने उनके 'नोट्स' की फ़ोटोकॉपी की स्पायरल बाइन्डिंग की हुई एक प्रति मुझे देते हुए कहा।
"आप आराम से अपनी सुविधा के अनुसार इसका अवलोकन कीजिए और जरूरत महसूस हो तो अपनी टिप्पणी इस पर ही या अलग से भी दे सकते हैं।"
बस कुल सौ सवा सौ पृष्ठ रहे होंगे, जिन पर तारीख़ भी अंकित नहीं की गई थी।
मैंने एक सरसरी नजर उस पर डाली।
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'नोट्स' - १
इस नोटबुक के पृष्ठों पर तारीख़ लिखना जरूरी नहीं है, क्योंकि इन 'नोट्स' का कोई विशेष सामयिक सन्दर्भ नहीं हो सकता है। बस एक क्रम अवश्य है पर वह भी एक संयोग ही है। 'नोट्स' को क्रमबद्ध करना भी आवश्यक नहीं है क्योंकि सभी 'नोट्स' की पृष्ठभूमि एक ही होते हुए भी उन्हें परस्पर स्वतंत्र रूप में भी देखा जा सकता है। इन्हें मैं अपनी डायरी की तरह लिख रहा हूँ और इसलिए इन्हें मेरे ही व्यक्तिगत विचार और निष्कर्ष माना जा सकता है।
मोहभंग :
शिक्षा संस्थान की स्थापना करते समय मैं जिस स्वप्न से मोहित हुआ था, वह शीशे के सुन्दर लेकिन नाज़ुक महल की तरह टूट कर चूर चूर हो चुका है। यद्यपि उसके टुकड़ों से हृदय लहूलुहान भी हुआ पर अच्छा ही लगा कि समय रहते मैं चेत गया। और अपने उद्देश्य के बारे में अब बहुत अलग ढंग से देख पा रहा हूँ। श्रीमद्भगवद्गीता पर मैंने बहुत से विद्वतापूर्ण लेख लिखे हैं किन्तु उस सबकी प्रेरणा सिर्फ स्मृति, स्मृति तथा बुद्धि का प्रशिक्षण ही था और मूल तात्पर्य से मैं अब तक अनभिज्ञ ही था।
यह श्लोक मुझ पर पूरी तरह सही उतरता है :
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।
मेरे प्रसंग में इस "विनश्यति" के "प्रणश्यति" अर्थ की पुष्टि इस श्लोक से भी होती है :
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधात्भवतिसम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।।
स्मृतिभ्रंशात्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
मेरे विषय में तो यह पूरा क्रम कुछ ऐसा ही था / है।
मैंने बहुत अच्छी शिक्षा प्राप्त की, मैं मेधावी और प्रतिभाशाली भी था। और शरीर से स्वस्थ, परिवार से समृद्ध और प्रतिष्ठित भी था / हूँ। संसार की सफलताएँ भी मानों मेरे पीछे पीछे ही चलती थीं, और मैं सदैव जीवन में किसी आदर्शपूर्ण उद्देश्य से प्रेरित होकर उसकी प्राप्ति के लिए अपनी संपूर्ण क्षमता, शक्ति और सामर्थ्य झोंक देता था।
राजनीति से मुझे कोई मतलब नहीं था। किसी विचारधारा आदि में मुझे कोई सार्थकता नजर नहीं आती थी। सभी कुछ जैसे एक उपद्रव ही लगा करता था। धार्मिक आयोजनों को तो मैं मुखौटा मानता था और उनके पीछे छिपे वीभत्स चेहरों की सच्चाई से भी भली-भाँति अवगत था। और हमेशा से यही लगता रहा कि धर्म और अध्यात्म खोज की वस्तु है, न कि आँखें मूँदकर नकल करने या कि अनुकरण किए जाने की वस्तु । दिखावा करने की तो कदापि नहीं।
दर्शनशास्त्र और दर्शन का भेद भी मुझे स्पष्ट था। बुद्धिवाद की मर्यादा और सीमा तो मुझे पातञ्जल योगदर्शन पढ़ते ही समझ में आ गई थी, जहाँ :
"प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।"
और,
"प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।"
के माध्यम से ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञात के आभासी भेद का पूर्णतः निवारण / निराकरण कर दिया गया है।
किन्तु मैं स्वयं बुद्धि से मोहित होकर किसी कल्पित "भविष्य" को आदर्श और उद्देश्य के सुन्दर स्वप्न की तरह गले लगा हुए था। मुझे यह स्वप्न इतना मनोहर और आकर्षक लगता था कि इसकी काल्पनिकता पर मुझे संदेह तक नहीं उठता था। ऐसे ही हर मनुष्य ही किसी न किसी स्वप्न में डूबा रहता होगा।
इसका मूल क्या है? क्या विषयमात्र पर ध्यान दिये जाने से ही यह प्रारंभ नहीं होता? किसी भी विषय पर ध्यान दिए जाते ही वह सुखद या दुःखद प्रतीत होता है। अर्थात् विषय से चित्त के जुड़ते ही उससे संग घटित हो जाता है जिसके बाद संग होने से उसमें प्रतीत होनेवाले सुख की कामना उत्पन्न होती है। कामना के पूर्ण होते ही दूसरा विषय उस विषय का स्थान ले लेता है, या कामना के पूर्ण न हो पाने पर क्रोध उत्पन्न हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में बुद्धि सम्मोहित हो जाती है जिससे भले-बुरे, सही और गलत की स्मृति और विवेक-बुद्धि भी नष्ट हो जाती है। मैं ठीक इसी बिन्दु पर था जहाँ अपने कल्पित आदर्श-रूपी स्वप्न की निरर्थकता और रिक्तता को देख तक नहीं पा रहा था, और तब कहीं से किसी प्रेरणा ने मेरे उस स्वप्न के काँच के महल पर एक पत्थर फेंक दिया।
तब मैं क्रोध से पागल हो उठा और उस पत्थर फेंकनेवाले के लिए मन में भयानक दुर्भावनाएँ उठने लगी। यद्यपि उसके मन में ऐसा कुछ नहीं था। वह तो मुझे जानता तक नहीं था।
उस एक दिन और रात्रि में मैंने युगों युगों की यात्रा कर ली। फिर थक गया और सो गया। सोकर उठा तो लगा मानों मेरा नया ही जन्म हुआ है।
इस 'नोट्स' में यहीं तक।
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