आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।
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'नोट्स' 5, 6 क्रमशः
'निर्वेद' दशा में यह स्पष्ट होता है कि निर्विषय चेतना में दृक्-दृश्य भेद विलीन हो जाता है। इसी 'निर्वेद' दशा में अहं-स्फुरणा के रूप में कोई वृत्ति स्फुरित होती है और वह तत्क्षण ही अस्तित्व के भान से रूपान्तरित हो जाती है। तब यही स्फुरणा 'अहं-वृत्ति' का रूप लेकर कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व के अभिमान से सृष्टि का कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होती है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, भोक्ता रुद्र और स्वामी विष्णु यही सृष्टा के ये तीनों रूप हैं। जबकि परमात्मा और उसका परम धाम इस सबसे ऊपर है जिसे प्राप्त कर लेने के बाद पुनः सृष्टि में लौटना नहीं होता।
जब तक मनुष्य / पुरुष में दूसरों से भिन्न अपना स्वतंत्र और पृथक् अस्तित्व होने की कल्पना होती है, तब तक वह पुराने शरीरों को त्याग कर पुनः पुनः नए नए शरीरों में जन्म लेता रहता है और अपने कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होने के आभास को ही सत्य की तरह मान लिया करता है। जब उसे 'निर्वेद' दशा का साक्षात्कार हो जाता है तो पुरुष, ब्रह्मा रुद्र और विष्णु इन उपाधियों को त्याग देता है, अर्थात् उसकी कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व, और स्वामित्व बुद्धि विलीन हो जाती है। और इसी पुरुष का उल्लेख वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८७ में 'इल' नामक महापराक्रमी धर्मपरायण चक्रवर्ती राजा के रूप में किया गया है जो राक्षसों, दैत्यों, असुरों, गन्धर्वों, यक्षों, किन्नरों, नाग आदि जातियों का एकमात्र 'परमेश्वर' था, जिससे वे सभी अत्यन्त भयभीत थे, इसलिए उसकी पूजा करते थे।
आब्रह्म से अब्राहम / इब्राहिम की समानता स्पष्ट है। इसी प्रकार अस्मि इल से इस्माइल की समानता भी दृष्टव्य है। इसलिए अब्राहम (वेदवर्णित पुरुष) प्रथम पैगम्बर था यह भी स्पष्ट है। पुरुषो एव इदं सर्वं यत्किञ्चित् अभूत् इति।
'आदम' भी 'आत्म' शब्द का अपभ्रंश / सजात / सज्ञात / cognate है, यह भी स्पष्ट है।
फिर भी एक महत्वपूर्ण उद्धरण यह भी उल्लेखनीय है :
"I am before Abraham"
बाइबिल-प्रेमी संभवतः सहमत होंगे।
अब्राहम ही यहूदी परंपरा का संस्थापक पैगम्बर है, और अब्राहम का बेटा है, -इस्माइल। इसे वेद और उपनिषद् की शिक्षाओं के आधार पर भी समझा जा सकता है। यह इस्माइल ही वह 'अहं-वृत्ति' है इल / पुरुष / अब्राहम जिसे परमेश्वर के प्रति समर्पित कर देता है और इस तरह से परमेश्वर से अपनी अनन्यता का साक्षात्कार कर लेता है। पुनः इल ही इला के रूप में पुरुष होते हुए भी स्त्री भी हो जाता है। इलावर्त की कथा में इसका भी उल्लेख है। यही इल इला होकर बुध के संपर्क में आता है जिससे द्विलिंगीय सृष्टि होती है। जैन धर्म के आचार्य ऐलाचार्य इसीलिए कहलाता हैं क्योंकि जैन और बुद्ध नास्तिक हैं और इस दृष्टि से उनमें बहुत सी समानताएँ भी हैं।
कठोपनिषद् में वर्णित नचिकेता वाजश्रवा उशना का पुत्र है, जिसे यम / मृत्यु के प्रति दान में दे दिया जाता है। ये सभी तथ्य इस बारे में युक्तिसंगत हैं कि उशना शुक्राचार्य का ही नाम है, जिनके अन्य नाम उशना और भार्गव तथा कौशिक भी हैं। सभी पाश्चात्य और विशेष रूप से ग्रीक संस्कृति, भाषा और इतिहास में प्रासंगिक हैं। शुक्राचार्य दैत्यों (Dutch / Deutsche) के आचार्य हैं। क्या ये समानताएँ संयोग-मात्र हैं?
जब मैंने यह सब जाना तो मुझे इस बारे में संशय नहीं रहा कि तीनों अब्राहमिक परंपराओं का मूल वह वैदिक धर्म / ही है जिसे कि सनातन धर्म भी कहा जाता है।
"हातिमताई" के बहाने उसने कुछ रोचक सत्य ही प्रस्तुत किया है!
उस पत्थर फेंकनेवाले के स्वाध्याय ब्लॉग्स में भी मैंने यह सब पढ़ा था और मैं उसकी विलक्षण प्रतिभा का कायल हो गया। उसने तो अरबी भाषा की संरचना के बारे में भी बहुत कुछ लिखा है लेकिन वह मुझे अनावश्यक प्रतीत हुआ क्योंकि मैं उस सब विवाद में पड़ना नहीं चाहता। इसका कारण स्पष्ट ही है कि यह एक बहुत संवेदनशील विषय है। विशेष रूप से उसने Angel का उद्भव अंगिरा / अंगिरस् से होने और इसी तरह Anglo-Saxon का अंगिरा शैक्षं से होने के बारे में भी बहुत कुछ लिखा है। संस्कृत 'पार्षद' से फारसी 'फ़रिश्तः' की समानता और इस अर्थ में Angel 'ऋषि' के तुल्य होने पर भी ध्यान आकर्षित किया है। जाबाल / जाबालि ऋषि Gabriel Angel की समानता भी रोचक है। यही वे एन्जिल हैं, जिनका संपर्क तीनों अब्राहमिक परंपराओं के संस्थापकों से था। इन सब सूत्रों का उल्लेख शायद हमारे समय की तमाम विडम्बनाओं को समझने और सुलझाने में मदद दे सकता है, लेकिन वह सब मेरे सोचने का विषय नहीं है।
मैं तो सिर्फ इस बिन्दु पर हूँ जहाँ किंकर्तव्यविमूढ नहीं हो सकता, क्योंकि 'किंकर्तव्यविमूढ' होना, यह भी स्वयं के स्वतंत्र कर्ता होने की मान्यता का ही परिणाम है। कर्तृत्व की इस कल्पना के विलीन होते ही 'मैं क्या करूँ?' और 'मैं यह करूँ या वह करूँ' यह प्रश्न ही व्यर्थ हो जाता है। फिर इसका उत्तर भी श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में और अंतिम अठारहवें अध्याय में भी :
"न योत्स्य"...
के प्रयोग से दिया गया है :
अध्याय 2
सञ्जय उवाच :
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।
तथा,
अध्याय 18
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।
से प्राप्त हो जाता है।
और अध्याय 3
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
से भी इसे ही स्पष्ट किया गया है।
इन 'नोट्स' में यहीं तक।
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पढ़ते पढ़ते मैं सन्न रह गया। यह भी नहीं सोच सका कि उस पत्रकार से क्या कह सकूँगा।
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