March 06, 2014

आजकल / 06 मार्च, 2014

सरोकार 
  'उन दिनों' से शुरू हुआ सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है ।
साहित्य मेरे जीवन की मुख्य धारा नहीं है । और जहाँ तक 'ब्लॉग' लिखने का सवाल है, मुझे तो यहाँ तक ख़याल नहीं था कि ब्लॉग-लेखन एक प्रोफेशनल गतिविधि होती है । न तो मुझे किसी विचार, सिद्धांत, आदर्श, सभ्यता, संस्कृति, धर्म या वस्तु का प्रचार करना था, न 'ब्लॉग-लेखन' द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी किस्म की 'अर्निंग्स' करनी थी । 'संसार' या दुनिया, 'समाज' या 'लोगों' का 'सुधार' करने का विचार भी दूर दूर तक कहीं मेरे मन में नहीं था । हाँ,  इस बारे में यह जरूर लगता था कि यदि किसी को मेरे ब्लॉग्स पढ़ने में किसी वज़ह से कोई दिलचस्पी हो तो मुझे भला क्या ऐतराज़ होना चाहिए । एक दूसरा ख्याल यह भी था कि मैं जो कुछ भी सही-गलत, अच्छा-ख़राब, श्रेष्ठ-निकृष्ट लिखता हूँ, उसका सुख-दुःख अकेले ही क्यों उठाऊँ । और फिर सबसे बड़ी सुविधा यहाँ यह थी कि जब चाहे 'ब्लॉग' को 'डिलीट' भी तो किया जा सकता है । लेकिन जब यह महसूस किया कि वाकई मेरे ब्लॉग्स को बहुत कम लोग पढ़ते हैं, तो मुझे यह सोचकर ख़ुशी ही हुई कि इस बहाने मुझे अपने 'लेखन' को अलग से 'सुरक्षित' रखने की फ़िक्र से भी मुक्ति मिल गई ।
तीन-चार वर्षों से फ़ेसबुक पर एन्जॉय करता रहा । वहाँ भी मैंने कोई डुप्लीकेट आइडेंटिटी नहीं बनाई । सब-कुछ 'ट्रांसपेरेंट' था । और मेरी ख़ुशकिस्मती ही थी कि मुझे वहाँ जितने मित्र मिले उनमें से अधिकाँश मेरे जैसे ही थे । हालाँकि पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं, फिर भी क़मोबेश सभी सचमुच निश्छल निष्कपट तो थे ही । एक इटैलियन मित्र थी । चूँकि मैं किसी के चरित्र, आचरण, संस्कारों, संस्कृति, आग्रहों, पूर्वाग्रहों, दुराग्रहों, धर्म, भाषा, उद्देश्यों आदि पर तब तक ध्यान नहीं देता जब तक कि उससे बातचीत में बाधा न उत्पन्न हो, इसलिए उससे भी अन्य मित्रों की तरह अनौपचारिक बातें होतीं रहती थीं । ऐसी ही एक 'चैट' के दौरान मैं उससे उसके नाम के बारे में बाते कर रहा था । जब मैंने उससे पूछा कि क्या मैं अपने किसी ब्लॉग में उसके नाम का उल्लेख कर सकता हूँ? तो उसने तुरंत उत्तर दिया :
 " वह (फ़ेसबुक वाला नाम) मेरा असली नाम थोड़ी है !"
दो मिनट तक हम दोनों शायद इधर उधर बिज़ी रहे होंगे, फिर उसका नेक्स्ट मैसेज आया  :
" वैसे ये नाम भी कहाँ असली है?"
मुझे उसकी परिपक्वता पर ख़ुशी हुई । मैं सचमुच उसकी समझ पर अभिभूत हो उठा ।
वास्तव में नाम का सत्य कितना सत्य है? जो इस छोटे से सत्य को जान लेता है, उसकी अपनी क्या पहचान बाकी रह जाती है? लेकिन वह शायद सबसे सुखी इंसान होता होगा । 
कभी कभी लेकिन बिरले ही, कुछ मित्रों से ऐसी ही अत्यंत आत्मीयता की बातें अनायास हो जाती हैं । यह पोस्ट समर्पित है उसे, और उस जैसे दूसरे भी अनाम मित्रों के नाम  ।
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2 comments:

  1. आप श्रेष्ठ हैं दा.… आपकी अनुपस्थिति खलती है , लौट आइये....
    सादर प्रणाम !

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    1. वन्दना जी,
      आपके अनुरोध के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, क्षमा चाहूँगा, लेकिन आजकल एकाएक इतना व्यस्त हो गया हूँ कि चाहकर भी नहीं लौट सकूँगा । या फ़िर लौटकर भी मित्रों को समय न दे पाऊँगा । किसी मज़बूरी में ही वहाँ से लौटना ज़रूरी हो गया था, और अब फ़िर वहाँ लौटना लगभग नामुमक़िन सा लगता है । किसी शायर की चार लाईनें याद आ रही हैं
      इक शब के मुसाफ़िर हैं हम तो,
      ये दुनिया मुसाफ़िरखाना है,
      न अपनी कोई कहानी है,
      न अपना कोई अफ़साना है ।
      सस्नेह शुभाशीष ।
      - विनय

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