वर्तमान : तीन चित्र
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चित्र -1
हिंदुत्व
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कुछ वर्षों पहले स्वर्गीय बलराज मधोक के बारे में एक पोस्ट लिखा था।
तत्कालीन जनसंघ में वही एक सबसे अधिक प्रबुद्ध बुद्धिजीवी थे जिन्होंने 'हिंदुत्व' के विचार के ख़तरे को समझा था। बाद में जनसंघ ने उन्हें अलग-थलग कर दिया था क्योंकि सत्ता के लोलुप दूसरे बुद्धिजीवियों को इस 'हिंदुत्व' के विचार (या इसके विरोध के विचार) से बहुत उम्मीदें थीं।
सावरकर ने इसे इस्लाम के विचार के खिलाफ अपरिहार्यतः ज़रूरी समझा और यही हिंदूवादी संगठनों की भयंकर भूल थी, यह आज तक किन्हीं हिंदूवादियों को समझ में नहीं आ रहा। जहाँ एक तरफ देश की जनता में 'हिन्दू गौरव' को इस्लाम के सामने उसके मुक़ाबले में खड़ा कर दिया गया, वहीँ हमारे बहुत से संत महात्मा भी इस धोखे से बचे न रह सके। अंग्रेज़ों ने इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध, जैन, सिख, यहूदी, पारसी, आदि परम्पराओं को धर्म (religion) कहकर 'हिंदुत्व' पर भी 'धर्म' की मुहर लगा दी और हमने उसे आँख मूंदकर स्वीकार कर लिया।
फिर 'सर्वधर्म-समत्व' के राजनैतिक विचार का आविष्कार गाँधीजी ने किया।
आचार, विचार, व्यवहार, संस्कार, और इतिहास के आधार पर उपरोक्त सभी परम्पराएँ जिन्हें 'धर्म' कहकर हमें परोसा गया, न सिर्फ परस्पर अत्यंत भिन्न प्रकृति की हैं, बल्कि उनके बीच सामञ्जस्य कर पाना असंभव की हद तक मुश्किल है। इस प्रकार अंग्रेज़ों ने सामान्य जनमानस में न सिर्फ परस्पर विद्वेष और मतभेद पैदा किए, बल्कि उनके बीच घृणा और वैमनस्य को भी पैदा किया और उसे हवा भी दी। भारत का विभाजन इसी वैमनस्य का परिणाम था, जिसके लिए तत्कालीन नेतागण सत्ता-लोलुपता के कारण ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए।
इस बीच उपरोक्त तथाकथित 'धर्मों' के मूल सिद्धांतों में से कुछ न्यूनतम 'समान विचार' चुन लिए गए ताकि उनके द्वारा इस झूठ को सत्य की तरह स्थापित किया जाए कि सभी 'धर्म' समान हैं। ज़ाहिर है कि न्यूनतम समानताओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर अधिकतम विरोधाभासों को आँखों से ओझल कर दिया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदूवादी धर्म जहाँ 'हिंदुत्व' के छाते के नीचे संगठित हुए वहीँ दूसरे 'धर्म' वाले भी अपने-अपने संगठन बनाने लगे। जिन 'धर्मों' के सिद्धांत मूलतः अन्य 'धर्मों' से भिन्न हैं उनके संगठनों के बीच परस्पर प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, वैमनस्य, अविश्वास, संदेह और भय उत्पन्न हुआ और इसका लाभ उन राजनीतिक शक्तियों ने लिया जिनका उद्देश्य समाज के किसी वर्ग / समुदाय की धार्मिक स्वतन्त्रता के बहाने सत्ता पर कब्ज़ा करना तथा अपनी राजनैतिक शक्ति बढ़ाना था। यह अविश्वास आज भी विद्यमान है और इसे दूर नहीं किया जाता, इस समस्या का कोई निदान नहीं हो सकता।
'हिंदुत्व' का विचार इस दृष्टि से दोनों ही रूपों में समाज और राष्ट्र के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ कि कुछ हिन्दू जहाँ कट्टर 'हिंदुत्ववादी' हो गए वहीँ कुछ 'हिन्दू' 'सेकुलर' / धर्मनिरपेक्ष होने के भ्रम में इन कट्टर 'हिंदुत्ववादियों' के घोर विरोधी हो गए। इस प्रकार अपने आपको 'हिन्दू' कहलानेवाले लोग इन दो धड़ों में बँट गए।
कुल परिणाम यही हुआ कि इससे सर्वाधिक लाभ उन्हीं राजनैतिक शक्तियों को मिला जो गैर-हिंदुत्ववादी थे।
श्री बलराज मधोक ने इस यथार्थ को समझा और जनसंघ से उनकी दूरी इसीलिए हो गयी क्योंकि दूसरे नेता यह सरल सत्य या तो समझ ही नहीं पाए, या उन्होंने जान-बूझकर इस सत्य से आँखें फेर लीं।
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चित्र -2
राजनीति
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पिछले चार वर्षों में भाजपा और मोदी जी की सफलता का राज़ यह नहीं था कि उन्होंने 'हिन्दू-समाज' को संगठित किया, बल्कि इसका एकमात्र कारण था कांग्रेस सरकार की सत्ता-लोलुपता, भ्रष्टाचार और देश के हित की उपेक्षा की कीमत पर भी जनता की भयंकर उपेक्षा करना । दूसरे भी दल कमोबेश ऐसे ही थे / हैं और भाजपा या शिवसेना, पीडीपी इत्यादि इसका अपवाद थे ऐसा नहीं कह सकते। राम-मंदिर, समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) आदि ऐसे ही बिंदु थे जिन पर 'वोट-बैंक' का सहारा लेनेवाले कभी किसी दृढ निश्चय पर नहीं पहुँच सके। अब जनता ने कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले शक्तिशाली बनाया है तो इसका भी कारण यह नहीं है कि कांग्रेस एकाएक दूध की धुली हो गयी है, बल्कि एकमात्र कारण है भाजपा से जनता की नाराज़ी। इसे कांग्रेस अपनी लोकप्रियता में वृद्धि समझ बैठे तो यह उसका भ्रम होगा।
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चित्र - 3
ज्योतिष
पिछले तीन चार माह के दौरान बस मनोरंजन के लिए you tube पर संतबेतरा अशोक के 'अखंड मंथन' को कभी कभी देखता था। उत्सुकता बस यह थी कि क्या सचमुच कोई ज्योतिषी या 'सिद्ध' किसी व्यक्ति, राष्ट्र, पार्टी, संस्था आदि का भविष्य देख / बता सकता है? उपरोक्त चैनल में मेरी उत्सुकता का एक कारण यह भी था कि मुझे हमेशा लगता रहा है कि कोई किसी का भविष्य 'देख' ही नहीं सकता क्योंकि जिसे 'भविष्य' कहा जाता है वह केवल किसी घटना का एक मानसिक चित्र होता है जो स्वयं ही जब निरंतर बदलता रहता है तो उस घटना की सत्यता कितनी सुनिश्चित हो सकती है? फिर भी, यदि मोटे तौर पर मान भी लिया जाए कि सांख्यिकीय परिभाषा के अनुसार कुछ घटनाओं के सत्य सिद्ध होने की संभावना हो सकती है जैसे पानी बरसना या आंधी आना, भूकंप या पुलों भवनों का टूटना-गिरना और कोई सटीकता से उनकी 'भविष्यवाणी' भी कर सकता है, किसी की मृत्यु या शादी कब होगी, तो भी क्या कोई इसे 'बदल' सकने का दावा भी कर सकता है? अर्थात् क्या किसी 'अनुष्ठान' मन्त्र-तंत्र, या दूसरे ज्योतिषीय उपाय से कोई इस 'भविष्य' को बदल सकता है? स्पष्ट है कि यदि कोई ऐसा दावा करता है तो वह झूठ बोल रहा है। क्योंकि यदि वह भविष्य को 'बदल' सकता है तो इसका मतलब हुआ कि उसने 'जो' भविष्य 'देखा' था वह 'वैसा' यथावत सत्य नहीं था । इसका मतलब यह हुआ कि न तो वह भविष्य को देख सकता है और न बदल सकता है।
इसी उत्सुकतावश मैं उपरोक्त चैनल देखा करता था।
मैं नहीं कह सकता कि इन तथा इनके जैसे अनेक ज्योतिषियों में इतना अधिक आत्मविश्वास कहाँ से आ जाता है कि वे बेधड़क ताल ठोंक कर भविष्यवाणियाँ करते हैं। और उन्होंने इसकी भी कल्पना तक शायद ही की होगी कि उनकी भविष्यवाणियाँ गलत सिद्ध होने पर कितने लोगों की आस्था को ठेस पहुँचती होगी और उन्हें स्वय कितना शर्मिन्दा होना पड़ सकता है।
बहरहाल मनुष्य मानसिक कल्पना से इतना अभिभूत हो जाता है कि वह असंभव तक को संभव मान बैठता है और ज्योतिष के जानकार तथा उनकी शरण में जानेवाले भी इसका अपवाद नहीं होते। अतिरंजित आत्मविश्वास और आत्म-मुग्धता का मेल होने पर यही होता है।
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हिंदुत्व
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कुछ वर्षों पहले स्वर्गीय बलराज मधोक के बारे में एक पोस्ट लिखा था।
तत्कालीन जनसंघ में वही एक सबसे अधिक प्रबुद्ध बुद्धिजीवी थे जिन्होंने 'हिंदुत्व' के विचार के ख़तरे को समझा था। बाद में जनसंघ ने उन्हें अलग-थलग कर दिया था क्योंकि सत्ता के लोलुप दूसरे बुद्धिजीवियों को इस 'हिंदुत्व' के विचार (या इसके विरोध के विचार) से बहुत उम्मीदें थीं।
सावरकर ने इसे इस्लाम के विचार के खिलाफ अपरिहार्यतः ज़रूरी समझा और यही हिंदूवादी संगठनों की भयंकर भूल थी, यह आज तक किन्हीं हिंदूवादियों को समझ में नहीं आ रहा। जहाँ एक तरफ देश की जनता में 'हिन्दू गौरव' को इस्लाम के सामने उसके मुक़ाबले में खड़ा कर दिया गया, वहीँ हमारे बहुत से संत महात्मा भी इस धोखे से बचे न रह सके। अंग्रेज़ों ने इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध, जैन, सिख, यहूदी, पारसी, आदि परम्पराओं को धर्म (religion) कहकर 'हिंदुत्व' पर भी 'धर्म' की मुहर लगा दी और हमने उसे आँख मूंदकर स्वीकार कर लिया।
फिर 'सर्वधर्म-समत्व' के राजनैतिक विचार का आविष्कार गाँधीजी ने किया।
आचार, विचार, व्यवहार, संस्कार, और इतिहास के आधार पर उपरोक्त सभी परम्पराएँ जिन्हें 'धर्म' कहकर हमें परोसा गया, न सिर्फ परस्पर अत्यंत भिन्न प्रकृति की हैं, बल्कि उनके बीच सामञ्जस्य कर पाना असंभव की हद तक मुश्किल है। इस प्रकार अंग्रेज़ों ने सामान्य जनमानस में न सिर्फ परस्पर विद्वेष और मतभेद पैदा किए, बल्कि उनके बीच घृणा और वैमनस्य को भी पैदा किया और उसे हवा भी दी। भारत का विभाजन इसी वैमनस्य का परिणाम था, जिसके लिए तत्कालीन नेतागण सत्ता-लोलुपता के कारण ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए।
इस बीच उपरोक्त तथाकथित 'धर्मों' के मूल सिद्धांतों में से कुछ न्यूनतम 'समान विचार' चुन लिए गए ताकि उनके द्वारा इस झूठ को सत्य की तरह स्थापित किया जाए कि सभी 'धर्म' समान हैं। ज़ाहिर है कि न्यूनतम समानताओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर अधिकतम विरोधाभासों को आँखों से ओझल कर दिया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदूवादी धर्म जहाँ 'हिंदुत्व' के छाते के नीचे संगठित हुए वहीँ दूसरे 'धर्म' वाले भी अपने-अपने संगठन बनाने लगे। जिन 'धर्मों' के सिद्धांत मूलतः अन्य 'धर्मों' से भिन्न हैं उनके संगठनों के बीच परस्पर प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, वैमनस्य, अविश्वास, संदेह और भय उत्पन्न हुआ और इसका लाभ उन राजनीतिक शक्तियों ने लिया जिनका उद्देश्य समाज के किसी वर्ग / समुदाय की धार्मिक स्वतन्त्रता के बहाने सत्ता पर कब्ज़ा करना तथा अपनी राजनैतिक शक्ति बढ़ाना था। यह अविश्वास आज भी विद्यमान है और इसे दूर नहीं किया जाता, इस समस्या का कोई निदान नहीं हो सकता।
'हिंदुत्व' का विचार इस दृष्टि से दोनों ही रूपों में समाज और राष्ट्र के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ कि कुछ हिन्दू जहाँ कट्टर 'हिंदुत्ववादी' हो गए वहीँ कुछ 'हिन्दू' 'सेकुलर' / धर्मनिरपेक्ष होने के भ्रम में इन कट्टर 'हिंदुत्ववादियों' के घोर विरोधी हो गए। इस प्रकार अपने आपको 'हिन्दू' कहलानेवाले लोग इन दो धड़ों में बँट गए।
कुल परिणाम यही हुआ कि इससे सर्वाधिक लाभ उन्हीं राजनैतिक शक्तियों को मिला जो गैर-हिंदुत्ववादी थे।
श्री बलराज मधोक ने इस यथार्थ को समझा और जनसंघ से उनकी दूरी इसीलिए हो गयी क्योंकि दूसरे नेता यह सरल सत्य या तो समझ ही नहीं पाए, या उन्होंने जान-बूझकर इस सत्य से आँखें फेर लीं।
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राजनीति
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पिछले चार वर्षों में भाजपा और मोदी जी की सफलता का राज़ यह नहीं था कि उन्होंने 'हिन्दू-समाज' को संगठित किया, बल्कि इसका एकमात्र कारण था कांग्रेस सरकार की सत्ता-लोलुपता, भ्रष्टाचार और देश के हित की उपेक्षा की कीमत पर भी जनता की भयंकर उपेक्षा करना । दूसरे भी दल कमोबेश ऐसे ही थे / हैं और भाजपा या शिवसेना, पीडीपी इत्यादि इसका अपवाद थे ऐसा नहीं कह सकते। राम-मंदिर, समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) आदि ऐसे ही बिंदु थे जिन पर 'वोट-बैंक' का सहारा लेनेवाले कभी किसी दृढ निश्चय पर नहीं पहुँच सके। अब जनता ने कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले शक्तिशाली बनाया है तो इसका भी कारण यह नहीं है कि कांग्रेस एकाएक दूध की धुली हो गयी है, बल्कि एकमात्र कारण है भाजपा से जनता की नाराज़ी। इसे कांग्रेस अपनी लोकप्रियता में वृद्धि समझ बैठे तो यह उसका भ्रम होगा।
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ज्योतिष
पिछले तीन चार माह के दौरान बस मनोरंजन के लिए you tube पर संतबेतरा अशोक के 'अखंड मंथन' को कभी कभी देखता था। उत्सुकता बस यह थी कि क्या सचमुच कोई ज्योतिषी या 'सिद्ध' किसी व्यक्ति, राष्ट्र, पार्टी, संस्था आदि का भविष्य देख / बता सकता है? उपरोक्त चैनल में मेरी उत्सुकता का एक कारण यह भी था कि मुझे हमेशा लगता रहा है कि कोई किसी का भविष्य 'देख' ही नहीं सकता क्योंकि जिसे 'भविष्य' कहा जाता है वह केवल किसी घटना का एक मानसिक चित्र होता है जो स्वयं ही जब निरंतर बदलता रहता है तो उस घटना की सत्यता कितनी सुनिश्चित हो सकती है? फिर भी, यदि मोटे तौर पर मान भी लिया जाए कि सांख्यिकीय परिभाषा के अनुसार कुछ घटनाओं के सत्य सिद्ध होने की संभावना हो सकती है जैसे पानी बरसना या आंधी आना, भूकंप या पुलों भवनों का टूटना-गिरना और कोई सटीकता से उनकी 'भविष्यवाणी' भी कर सकता है, किसी की मृत्यु या शादी कब होगी, तो भी क्या कोई इसे 'बदल' सकने का दावा भी कर सकता है? अर्थात् क्या किसी 'अनुष्ठान' मन्त्र-तंत्र, या दूसरे ज्योतिषीय उपाय से कोई इस 'भविष्य' को बदल सकता है? स्पष्ट है कि यदि कोई ऐसा दावा करता है तो वह झूठ बोल रहा है। क्योंकि यदि वह भविष्य को 'बदल' सकता है तो इसका मतलब हुआ कि उसने 'जो' भविष्य 'देखा' था वह 'वैसा' यथावत सत्य नहीं था । इसका मतलब यह हुआ कि न तो वह भविष्य को देख सकता है और न बदल सकता है।
इसी उत्सुकतावश मैं उपरोक्त चैनल देखा करता था।
मैं नहीं कह सकता कि इन तथा इनके जैसे अनेक ज्योतिषियों में इतना अधिक आत्मविश्वास कहाँ से आ जाता है कि वे बेधड़क ताल ठोंक कर भविष्यवाणियाँ करते हैं। और उन्होंने इसकी भी कल्पना तक शायद ही की होगी कि उनकी भविष्यवाणियाँ गलत सिद्ध होने पर कितने लोगों की आस्था को ठेस पहुँचती होगी और उन्हें स्वय कितना शर्मिन्दा होना पड़ सकता है।
बहरहाल मनुष्य मानसिक कल्पना से इतना अभिभूत हो जाता है कि वह असंभव तक को संभव मान बैठता है और ज्योतिष के जानकार तथा उनकी शरण में जानेवाले भी इसका अपवाद नहीं होते। अतिरंजित आत्मविश्वास और आत्म-मुग्धता का मेल होने पर यही होता है।
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