गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णू गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
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जैसे हर शब्द के प्रचलित होने पर उसके क्रमशः अनेक शब्दार्थ, भावार्थ, वाच्यार्थ, इंगितार्थ और लक्ष्यार्थ हो जाते हैं और शायद ही कोई अर्थों की इस भूल-भुलैया में भ्रमित होने से बच जाता है, वैसे ही "गुरु" शब्द भी एक अनेकार्थी शब्द हो गया है, और अपने मूल अर्थ का द्योतक न होकर किसी और ही तात्पर्य का सूचक हो गया है।
शिक्षा-गुरु, धर्म-गुरु, राजनीतिक-गुरु, क्रिकेट-गुरु, जैसे अनेक शब्दों में "गुरु" का मूल अर्थ विलुप्तप्राय हो गया है।
किन्तु इसके मूल अभिप्राय को समझने के लिए हम कह सकते हैं कि इसे :
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।
के सन्दर्भ में देखना उचित हो सकता है ।
इस प्रकार "गुरु" माता के रूप में प्रथम गुरु है ही जो न सिर्फ जन्मदात्री है, बल्कि प्रकृति भी है। प्रकृति को जड समझा जाता है, जबकि प्रकृति को 'जड' कहने / मानने / समझने वाला स्वयं को 'चेतन' कहता / मानता / समझता है, यद्यपि उसे यह तक स्पष्ट नहीं होता कि वह स्वयं प्रकृति से किस प्रकार से भिन्न है! किन्तु उसका ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित किया जा सकता है कि प्रकृति जिन तत्वों की समष्टि है, उसका शरीर भी उन्हीं तत्वों से निर्मित होता है, और शरीर के होने से ही वह चेतन है, न कि शरीर के अभाव में!
इस प्रकार जैसे काष्ठ में अग्नि अप्रकट होती है, और परिस्थिति के अनुकूल होने पर प्रकट और व्यक्त हो जाती है, उसी प्रकार शरीर भी प्रकृति का उपकरण मात्र है, जिसमें चेतना क्रमशः कभी प्रकट तो कभी अप्रकट होकर भी जीवन का रूप लेकर व्यक्ति के शरीर में मन, बुद्धि, भावना, स्मृति, अहंकार, जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं का एकमात्र कारण होती है ।
इस दृष्टि से मूलतः तो प्रकृति ही प्रथम गुरु है, किन्तु पर्याय से माता को प्रथम गुरु कहा जाना भी सर्वथा उचित ही है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १४ के निम्न श्लोक यहाँ उद्धृत किए जा सकते हैं :
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।।३।।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।४।।
इस प्रकार परमात्मा की प्रेरणा से ही प्रकृति असंख्य प्राणियों को जन्म देती है । परमात्मा ही सबका परमपिता और प्रकृति का भी गुरु है ।
हम सब चेतन सत्ताएँ (sentient beings) इस प्रकार ईश्वर तथा प्रकृति की ही संतानें हैं।
इस प्रकार हम सब परस्पर बन्धुत्व की डोर में बँधे हुए हैं। एक दूसरे के बन्धु हैं, और एक दूसरे के लिए एक दूसरे की सहायता से जीवन के सर्वोत्तम ध्येय को प्राप्त कर सकते हैं। अतः बन्धु भी इस दृष्टि से गुरु है।
अब बारी है सखा की, अर्थात् मित्र या संगति की । संगति शुभ होने पर हमारा कल्याण होगा और कुसंगति होने की स्थिति में हमारा अशुभ ही होना तय है ।
इस प्रकार मित्र भी गुरु हो सकता है ।
विद्या भी इस दृष्टि से गुरु है कि वह हमें जीवन को जीने और धर्म तथा अधर्म को जानकर तदनुसार आजीविका प्रदान करने में सक्षम बनाती है तथा इसी तरह से उत्तम आचरण करने के तरीके का मार्गदर्शन भी देती है ।
द्रविण अर्थात् द्रव्य का महत्व तो व्यवस्था और जीवन में वैसा ही है, जैसा शरीर में रक्त तथा रक्त-संचार का । और इसलिए अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार ही मनुष्य को कोई भी कार्य करने की प्रेरणा होती है ।
इस प्रकार गुरु तत्व अनेक स्तरों पर हमें निरंतर सहायता और मार्गदर्शन देता रहता है।
अब इस गुरु तत्व की स्वतंत्रतः क्या भूमिका है, इस बारे में : शिक्षक, मार्गदर्शक, मित्र, शुभचिन्तक आदि के रूप में गुरु को भिन्न भिन्न रूपों में देखा जा सकता है।
लौकिक स्तर पर शिक्षक किसी विशेष प्रकार की शिक्षा देता है, आचार्य आचरण करने की शिक्षा देता है । धर्मगुरु नैतिक और लोक-परलोक के लिए हितकर कार्य की शिक्षा देता है, जबकि आध्यात्मिक गुरु सत्य, आत्म-ज्ञान की शिक्षा देता है।
किन्तु इनसे भी भिन्न एक कोटि है 'पुरोहित' की, जो कि न केवल एक माध्यम और शिक्षक भी होता है, धर्म अध्यात्म के विषय में सहायक भी सकता है ।
शास्त्र भी इस दृष्टि से गुरु हैं ही, किन्तु शास्त्रों का तात्पर्य ग्रहण करने के लिए पात्रता का महत्व भी उतना ही आवश्यक है ।
इसलिए यह हम पर ही निर्भर करता है कि हमारे लिए गुरु शब्द का क्या आशय हम ग्रहण करते हैं ।
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