November 12, 2021

The Penultimate.

अनन्तिम / कविता 12-11-2021

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हर बार यही लगता है अन्त,

फिर, वह भी तो है बीत जाता,

यदि वह अन्त ही होता तो,

बना रहता ही! न बीतता!

समय का ही यदि अन्त न हो,

तो सब कुछ ही तो बीतता है,

लेकिन यह बीतना भी क्या,  

सचमुच ही कभी बीतता है! 

क्या वह स्वयं समय है, या,

समय है स्वयं, बीतना ही,

फिर कैसे अन्त होगा उसका,

जो न कभी भी रीतता है! 

क्या प्रारंभ भी है उसका, 

यदि है तो, किसने देखा?

जिसने भी वह देखा होगा,

क्या उसने खुद को देखा?

देखा होगा तो जाना होगा, 

ऐसा कोई भी समय नहीं,

जो होता हो प्रारंभ कभी, 

होता हो जिसका अन्त कभी! 

इसका कोई नहीं जवाब,

यह सवाल ही है बेहूदा, 

इसका जवाब ढूँढना भी,

है काम उतना ही, बेहूदा!

फिर क्या करे, कोई इसका, 

समय, जो आता जाता है,

जो चलता ही रहता है,

कभी कहाँ वह रुकता है!

समय का यह ख़याल भी क्या, 

स्वयं समय की उपज नहीं!

क्या ख़याल ही नहीं, समय,

स्वयं समय की उपज नहीं!

फिर क्या कोई और भी है, 

जो बँधा हुआ समय से है,

जिससे समय बँधा नहीं,

जो फँसा हुआ समय में है!

क्या वह सचमुच है कोई, 

या वह भी है सिर्फ ख़याल, 

तो फिर वह क्या है जिसमें, 

उठते हैं सारे सवाल! 

***

संदर्भ :

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अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते। 

व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो।

यदा शेते रुद्रो संहरति प्रजाः।।

यो वै रुद्रः स भगवान् ।

यश्च कालः तस्मै रुद्राय वै नमः।। 

(शिव-अथर्वशीर्ष)







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