आत्मनिर्भरता
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कहा जाता है :
"पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं... !"
सवाल यह है, कि स्वाधीन होना क्या है और आत्मनिर्भर होना क्या है? शरीर और मन परस्पर स्वतंत्र हैं, या परतंत्र हैं? लगता तो यही है कि दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं और एक-दूसरे से प्रभावित भी होते हैं। फिर वह, जो शरीर और मन को 'मेरा' कहता है, इनमें से क्या है? वह, जो शरीर और मन को 'मेरा' कहता है, क्या शरीर और मन दोनों को, या उनमें से किसी एक को भी प्रभावित करता है, -या उन दोनों, या उनमें से किसी भी एक से भी प्रभावित होता है?
स्पष्ट है कि जिसे 'मैं' कहा जाता है वह न तो शरीर या मन को प्रभावित करता है, और न ही उनसे प्रभावित होता है। यह 'मैं' अवश्य ही उनसे स्वतंत्र कोई वस्तु है।
क्या यह 'मैंं' उनमें से किसी एक का, या फिर दोनों का ही एक सम्मिलित परिणाम है? क्या, वे दोनों 'मैं' के ही एक अथवा दो भिन्न भिन्न परिणाम हैं? सत्य अर्थात् वास्तविकता, कुछ भी क्यों न हो, इन तीनों में से वह कौन / क्या है, जो कि आत्मनिर्भर हो सकता या होता है?
क्या इन तीनों की समग्र गतिविधि ही नियति है?
फिर 'निजता' क्या है?
क्या यह 'निजता', -नित्य, सनातन, स्व-अनुभूत, स्वतःप्रमाणित एक वास्तविकता नहीं है?
जैसे 'निजता' जीवन से अभिन्न है, वैसे ही क्या वह मृत्यु से भी अभिन्न है? क्या 'निजता' की मृत्यु हो सकती है? स्पष्ट है कि मृत्यु या मृत्यु की कल्पना भी जीते-जी ही हो सकती है। फिर वह अपनी हो या कि किसी और की। दूसरे की मृत्यु तो सभी के लिए एक प्रत्यक्ष तथ्य है, किन्तु अपनी मृत्यु को क्या कभी इस तरह से प्रत्यक्षतः घटित होते हुए जान या देख पाना व्यावहारिक और तर्कसंगत दृष्टि से भी संभव, ग्राह्य है?
और अनुभव की दृष्टि से भी ऐसा होने का प्रश्न, क्या एक अबूझ पहेली ही नहीं है?
दूसरे की मृत्यु यद्यपि इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, कल्पनागम्य और बुद्धिगम्य हो सकती हैऔर इस दृष्टि से शायद अनुभवगम्य भी, किन्तु अपनी मृत्यु तो कभी अनुभवगम्य भी नहीं हो सकती।
फिर आत्मनिर्भरता क्या है?
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