October 28, 2021

भवसागर

पूछो मेरे दिल से!

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संसार का सागर हाय, 

चारों तरफ लहराय,

जितना आगे जाऊँ,

गहरा होता जाय!

ग़म के भँवर में,

क्या क्या डूबा,

पूछो मेरे दिल से,

हाय, पूछो मेरे दिल से!

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केवल एक शब्द बदला है। 'प्यार' को 'संसार' से रिप्लेस किया है, इस गीत को अवश्य ही सुना होगा आपने। 

स्वर्गीय मुकेशजी का गाया गीत है :

तुम बिन जीवन, कैसे बीता, 

पूछो मेरे दिल से, 

हाय, पूछो मेरे दिल से! 

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You-tube / Wion पर उस होस्टेस की वाणी झकझोरकर रख देती है। किन्तु यह समझ में नहीं आता कि संसार के कष्टों से संसार की मुक्ति का कोई तरीका उसके पास है भी या नहीं! 

फिर क्यों वह व्यर्थ इतना श्रम कर रही है। 

उदाहरण के लिए आज उसने यू. के. की फौज में rampant व्याप्त rape-culture के बारे में चर्चा की। 

Rape या बलात्कार अपने आपमें एक स्वतंत्र समस्या है, जो कि हिंसा violence की दुष्प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है।

क्या किसी नैतिक, आदर्शवादी सोच या शिक्षा से हमारे भीतर स्थित हिंसा के संस्कारों से मुक्त हुआ जा सकता है?

क्या फौज अहिंसा के आदर्श पर चलकर अपना कार्य कर सकती है? क्या किसी सभ्य समाज में फौज अर्थात् सेना की कोई आवश्यकता होगी? 

स्पष्ट है कि हम न तो सभ्य हैं, न अहिंसक। 

साथ ही यह भी सच है कि हिंसक या अहिंसक होना हमारी शिक्षा-दीक्षा, परिस्थितियों, परिवेश और जीवन-मूल्यों पर भी निर्भर होता है। कोई शाकाहारी मनुष्य भी असफलताओं से टूटकर उग्र अथवा हताश हो सकता है। यहाँ तक कि अपनी और अपनों की समस्याओं से भी उदासीनता की हद तक लापरवाह और ग़ैर-जिम्मेदार भी हो सकता है। मनुष्य ही एक ऐसा, इतना विचित्र और जटिल सामाजिक प्राणी है, जो हमेशा द्वन्द्व की मानसिकता में होता है। फिर भी उसमें जहाँ एक ओर आक्रोश, तो दूसरी ओर अपराध-बोध भी होता है। इन सबके कारण वह एक विचित्र भावदशा का शिकार हो जाता है। शायद ही कोई समाज ऐसा होता हो, जिसमें हर मनुष्य इस प्रकार की खंडित मानसिकता से मुक्त होता हो। 

मुझे नहीं लगता, कि संसार की समस्याओं का कभी कोई हल हो सकता है। सभी की अपनी अपनी नितान्त भिन्न, अलग अलग तरह की समस्याएँ होती हैं, जिससे पूरे समाज की एक समस्या की तरह नहीं निपटा जा सकता। कानून, एक हद तक समाज को नियंत्रित और अनुशासित तो कर सकता है, किन्तु चारित्रिक दृढ़ता / कमज़ोरी तो हर व्यक्ति में भिन्न भिन्न होती है।

जब तक भौतिक प्रगति का बुखार नहीं उतरता, तब तक मनुष्य के लिए कोई आशा नहीं की जा सकती। न राष्ट्र के लिए, और न संसार के लिए। 

और यह भी मानना ही होगा कि कोई भी मनुष्य अपने स्वभाव को न तो बदल सकता है, न सुधार ही सकता है। 

जब तक हमारी जीवन-शैली ही पूरी तरह न बदल जाए, तब तक नित नई समस्याएँ पैदा होनी ही हैं।

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