October 14, 2021

गुनाह

कविता : 14-10-2021

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गवाह

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बेपरवाह तो नहीं, हाँ, लापरवाह हूँ मैं, 

प्रकृति का स्वाभाविक, सहज-प्रवाह हूँ मैं! 

मुझमें हैं खामियाँ कुछ, तो ख़ासियतें भी हैं,

इन ख़ामियों, ख़ासियतों का, हाँ गवाह हूँ मैं! 

न आता हूँ कहीं से, न जाता हूँ मैं कहीं भी,

मजबूत इरादों की, पर ठोस राह हूँ मैं!

यूँ चला था बनाने को, मैं एक नई दुनिया,

ऐसी ही क़ोशिशों से, हुआ तबाह हूँ मैं!

फैला तो ऐसे फैलता, ही चला गया मैं,

ईमानदार जैसे मासूम आह हूँ मैं!

मालिक ने जब से दी है, दिल में पनाह मुझको,

शहंशाह ही नहीं, जहाँपनाह हूँ मैं! 

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