October 02, 2021

मैं अवाक्!

स्मृति ही वाणी...!

कविता : 02-10-2021

---------------©---------------

खुद ही खुद से बातें करती है, 

'मैं' तो हर पल ही रहता मौन, 

घातें-प्रतिघातें करती है!

'मैं' तो हर पल ही रहता मौन!

स्मृति ही कहती है, दुनिया है, 

स्मृति ही तो 'मैं' कहती है!

'मैं' ही, मेरी दुनिया भी, 

स्मृति ही तो यह कहती है!

खुद ही बाँटती है खुद को, 

'मैं'-'मेरे' में, बँट जाती है,

अपने ही इस ताने-बाने के,

जाल में खुद फँस जाती है!

'मैं' अवाक् बस देखा करता, 

पल-प्रतिपल स्मृति का खेल,

फिर भी कभी नहीं कहता कुछ,

कैसे यह, कह सकता, मैं! 

***

संदर्भ : गीता, 

अध्याय ४ --

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।५।।

अध्याय ७ --

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।२६।।

--

उपरोक्त दोनों श्लोकों का अर्थ :

'अहं' को उत्तम पुरुष एकवचन, अन्य पुरुष एकवचन या आत्मा / परमात्मा / ईश्वर, किसी भी अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि यहाँ 'वेद' -- वर्तमान काल,  लिट्-लकार में उत्तम पुरुष और अन्य पुरुष दोनों ही से सुसंगत है।

'मां' या 'माम्' को भी, इसी प्रकार से, मेरे' या 'आत्मा के' / 'ईश्वर के', इन सभी अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। 

ईश्वर यद्यपि सबको जानता है, ईश्वर को कोई नहीं जानता। अपनी आत्मा को, -अपने आपको भी उस प्रकार से नहीं जाना जा सकता, जिस प्रकार से अपने से भिन्न किसी अन्य वस्तु को जाना जाता है। आत्मा में निमग्न होकर ही आत्मा को उस ज्ञान से जाना जाता है जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय का भेद मिट जाता है और सब कुछ आत्मा ही है, इस सत्य का साक्षात्कार होता है। 

***




No comments:

Post a Comment