कविता : 07-10-2021
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हाँ इस एक बंजर गर्म रेगिस्तान में,
मैं तो उगाने जा रहा हूँ कमल!
हाँ ये सच है, वक्त लगना है ज़रूर,
फिर भी करने जा रहा हूँ मैं अमल!
पहले बदलूँगा मैं मौसम यहाँ का,
एक टुकड़े पर उगाऊँगा मैं घास,
और वह टुकडा़ बडा़ करते हुए,
एक जंगल बनाने का है प्रयास!
और उस जंगल को भी बड़ा करके,
बंजर जमीन यह उपजाऊ बनाऊँगा,
इस भूमि की मिट्टी को भी दूँगा बदल!
जब ये जंगल फैल जाएगा क्षितिज तक,
मौसम, हवा भी बदल जाएँगे, दूर तक!
आने लगेंगे जब यहाँ पंछी भी हर ओर से,
उड़कर के चहचहा के, कलरव करेंगे जोर से,
गूँजने लगेंगे यह धरती, गगन उस शोर से
देख लूँगा धरती अपने सजल नेत्र-छोर से!
वही नेत्र जो आज तक थे तप्त रेगिस्तान में,
शुष्कप्राय, अश्रुसिक्त, हो उठेंगे फिर सजल!
और फिर है क्या अचंभा, सरोवर भी यहाँ होगा,
और उस पर पल्लवित पुष्पित भी होंगे कमल!
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