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59 वर्ष पहले 21 अक्तूबर के दिन अचानक चीन ने भारत पर आक्रमण किया । किन्तु इसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि चीन के उस समय के तत्कालीन शासक माओ-त्से-दोङ् को लगता था कि भारत के उस भौगोलिक उत्तर पूर्व में वह क्षेत्र है जहाँ पहुँच जाने पर मनुष्य अमर हो सकता है। यद्यपि वह अमर होना तो चाहता था, किन्तु उसे उस क्षेत्र का ठीक ठीक स्थान कहाँ है इस बारे में संशय था।
इसके लिए पहले तो उसने तिब्बत पर आक्रमण कर, बलपूर्वक उस पर अधिकार किया और अपने देश की सीमाओं के भीतर राज्य के रूप में मिला लिया ।
भारत का दुर्भाग्य कि हमारे तत्कालीन शासक चीन की नीयत न भाँप सके, और कौन जानता है कि क्या बौद्ध धर्म के पंचशील के सिद्धान्त की आड़ में चीन ने भारत को धोखे से मित्रता का नाटक किया!
जो भी हो, अभी भी चीन-भारत के बीच सीमा-विवाद का कोई समाधान नहीं हो पाया है।
यह सत्य है कि हिमालय भारत का प्रहरी है और नेपाल भारत का नेत्र जिसमें धूल झोंककर चीन अपने कुत्सित इरादों को पूर्ण करने की चेष्टा में संलग्न है।
इसे ऐतिहासिक फ्लैशबैक / रिट्रोस्पेक्ट में देखें तो ज्ञात होगा कि इसके मूल में अंग्रेजों की कुण्ठा थी, क्योंकि उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था, और वे चाहते थे कि यह सोने की चिड़िया भारत (जो कि ईश्वर और प्रकृति के आशीर्वाद से एक राष्ट्र है), टूटता चला जाए, और उसका नामो-निशान तक बाकी न रह पाए।
हिमालय, कैलास-मानसरोवर, और नेपाल के आसपास एक शिव-क्षेत्र है, जहाँ भगवान् शिव माता पार्वती की प्रसन्नता के लिए स्त्री का रूप धारण कर निवास करते हैं। और केवल वे ही नहीं, उस स्थान के दूसरे भी सभी प्राणी भी सदैव शारीरिक दृष्टि से स्त्री के ही रूप में होते हैं, अर्थात् वहाँ कोई प्राणी पुरुष-रूप में, पुंल्लिंग के रूप में नहीं है । केवल मनुष्य और पशु-पक्षी ही नहीं, बल्कि वृक्ष-वनस्पतियाँ भी इसी प्रकार से स्त्री-लिंगीय हैं।
(सन्दर्भ उत्तरकाण्ड, सर्ग ८७)
महर्षि वाल्मीकि को आदिकाव्य रामायण लिखने की प्रेरणा व्याध द्वारा जिस क्रौञ्च पक्षी के वध की पीड़ा से हुई, उसका वर्णन वाल्मीकि रामायण ग्रन्थ के बालकाण्ड में द्वितीय सर्ग में इस प्रकार से है :
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।१५।।
इसी क्रौञ्च पक्षी के कैलास पर्वत से मानसरोवर तक आने जाने के लिए पर्वत में एक रन्ध्र का उल्लेख महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् ग्रन्थ के 'पूर्वमेघ' में इस प्रकार से पाया जाता है :
प्रालेयाद्रेरुपतटमतिक्रम्य तान्स्तान्विशेषान्
हंसद्वारं भृगुपतियशोवर्त्म यत्क्रौञ्चरन्ध्रम् ।
तेनोदीचिं दिशमनुसरेस्तिर्यगायामशोभी
श्यामः पादो बलिनियमनेऽभ्युद्यतस्येव विष्णोः ।।५९।।
यद्यपि इसे महाकवि कालिदास ने यहाँ क्रौञ्चरन्ध्र भी कहा है, किन्तु इसी पंक्ति में उसे हंसद्वार भी कहा है।
चन्द्रभागा, शतद्रु (सतलज) और सरस्वती नदियों के समीपवर्ती इस क्षेत्र में कनाल और हरिद्वार स्थित हैं।यह क्षेत्र कैकेय व हैहय क्षेत्रों के बीच है। इसके उत्तर में क्रौञ्चरन्ध्र है और उसके तथा हरिद्वार के मध्य से ब्रह्मपुत्र नद, कामरूप की दिशा में प्रवाहित होता है।
भगवान् शङ्कर के इसी स्थान पर और कैलास मानस-सरोवर क्षेत्र के समीप स्थित वह शिवलोक है, जहाँ पृथ्वी का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा 'इल' एक बार आखेट करते हुए भूल से आ गया था, और वह, उसकी पूरी सेना व सेवकों सहित स्त्री-रूप में परिणत हो गया था। फिर उसने भगवान् शिव से प्रार्थना की कि इस संकट से उसका उद्धार करें। तब उन्होंने 'इल' से कहा कि वह इसके लिए माता पार्वती से निवेदन करे। संक्षेप में तब उसे यह वर प्राप्त हुआ कि वह क्रमशः एक मास तक पुरुष और फिर एक मास तक स्त्री-रूप में रहेगा।
तत्पश्चात, 'इल' जब इस प्रकार से एक समय जब स्त्री-रूप में था उसका संपर्क महात्मा बुध (आकाशीय ग्रह) से हुआ जो उस शिव-क्षेत्र से बाहर तपस्यारत थे।
यहाँ कथा में ज्योतिष के गूढ तत्वों के बारे में कहा गया है, और हम पुनः उस शिव-क्षेत्र पर आ जाते हैं जहाँ पर भगवान् शिव लास्य-नृत्य किया करते हैं।
इस प्रकार उस स्थान का नाम शाङ्करीय लास्य के रूप में लोक में विख्यात हुआ।
दीर्घ काल के बीतने पर उसे ही अपभ्रंश के रूप में शांग्री-ला के रूप में जाना जाने लगा।
चीन इसी स्थान की खोज में है ताकि उसके शासक 'अमर' हो सकें ।
किन्तु लगता नहीं कि कभी वे इसे खोज पाने में सफल हो सकेंगे । पर यदि वे भगवान् शिव को खोज लें तो हो सकता है कि शायद उन्हें उनके आशीर्वाद से इसमें सफलता मिल जाए!
आश्चर्य नहीं कि बौद्ध लामाओं को इसके रहस्य का पता हो!
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