अस्ति इव वाच्यः
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बचपन में अंग्रेजी भाषा से आतंकित था। कक्षा ९ में मैंने विज्ञान और गणित मुख्य विषय के रूप में चुने थे। हिन्दी और अंग्रेजी मुख्य भाषाएँ और संस्कृत वैकल्पिक द्वितीय भाषा के रूप में । पहले दिन हिन्दी की परीक्षा थी, उसके दूसरे दिन अंग्रेजी भाषा की । कक्षा में हम कुल आठ-नौ छात्र थे । पिताजी गाँव के उसी सरकारी स्कूल में प्राचार्य थे, जहाँ मैं अध्ययन कर रहा था। चूँकि मेरे अलावा मेरी कक्षा के शेष छात्र आसपास के गाँवों से पढ़ने के लिए कुछ किलोमीटर चलकर आया करते थे, जिनके माता-पिता ग्रामीण किसान आदि थे, इसलिए कक्षा में मुझे अनायास प्रमुख स्थान प्राप्त हो गया था। परीक्षा पूरी होने के बाद भी छात्र एक-दूसरे के बारे में जानने के लिए परीक्षा-हॉल से बाहर प्रतीक्षा करते थे । मैं चूँकि अन्त में बाहर आया तो देखा शेष सभी छात्र आपस में चर्चा कर रहे थे। फिर मैंने सबसे कहा :
"कल अंग्रेजी का पेपर है और परीक्षा देना या न देना स्वैच्छिक है, इसके मार्क्स भी परीक्षा-परिणाम में नहीं जोड़े जाएँगे। मैं तो पेपर भी नहीं दूँगा।"
सबसे मेरे विचार का समर्थन किया ।
दूसरे दिन पिताजी सुबह 6:00 बजे 'बोर्ड' के पेपर लेने के लिए पुलिस थाने चले गए, क्योंकि वे वहाँ रखे जाते थे। मैं आराम से 6:45 पर परीक्षा देने के लिए स्कूल जाने का नाटक करता हुआ घूमने निकल गया। डर तो लग रहा था कि मेरे ऐसा करने का पता तो उन्हें चलेगा ही, और पिताजी बहुत नाराज होंगे । शायद मेरी अच्छी खासी पिटाई भी होगी । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
इसका एक परिणाम यह हुआ, कि कक्षा में मेरा स्थान (रैंकिंग) चौथा हो गया। मुझे आश्चर्य हुआ और जब मैं इस बारे में जानने के लिए कक्षाध्यापक (श्री सच्चिदानन्द दुबे) के पास पहुँचा, तो मुझे पता चला, मेरी अंक-सूची में उन्होंने अंग्रेजी में मुझे प्राप्त हुए अंकों को जोड़कर नतीजा ही बदल दिया था। यहाँ तक कि मेरी श्रेणी (डिवीज़न) को भी इसलिए 'प्रथम' (I) से बदलकर 'द्वितीय' (II) कर दिया था। इस अंक-सूची में देखा जा सकता है कि कैसे मेरे द्वारा इस भूल को इंगित किए जाने पर उसे 'द्वितीय' (II) से सुधारकर 'प्रथम' (II) किया गया है!
और नीचे दिनांक 01-05-1968 के साथ, विद्यालय के प्राचार्य :
-मेरे स्वर्गीय पिताजी, श्री एस. एम. वैद्य
के हस्ताक्षर भी हैं,
आज उस मार्क-शीट को देखा तो याद आया!
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