August 12, 2015

हे भारत! (राष्ट्र-वंदना) - स्व. रामाधारीसिंह ’दिनकर’

हे भारत!
(राष्ट्र-वंदना)
स्व. रामाधारीसिंह ’दिनकर’
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तुझको या तेरे नदीश,
गिरि-वन को करूँ नमन मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत,
किसको नमन करूँ मैं?
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भू के मानचित्र पर अंकित,
त्रिभुज यही क्या तू है?
नर के नभश्चरण की दृढ़
कल्पना नहीं क्या तू है?
वेदों का ज्ञाता,
निगूढ़ताओं का चिरज्ञानी है,
मेरे प्यारे देश,
नहीं तू पत्थर है, पानी है ।
जडताओं में छिपे किसी चेतन को करूँ नमन मैं,
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भारत नहीं स्थान का वाचक,
गुण-विशेष नर का है,
एक देश का नहीं,
शील यह भूमण्डल भर का है ।
देश-देश में वहाँ खड़ा
भारत जीवित भास्कर है..
निखिल विश्व की जन्मभूमि के
वंदन को करूँ नमन मैं
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खंडित है यह मही,
शैल से सरिता से सागर से,
पर जब भी दो हाथ निकल,
मिलते आ द्वीपान्तर से,
तब खाईं को पाट,
शून्य में महामोद मचता है,
दो द्वीपों के बीच सेतु यह,
भारत ही रचता है !
मंगलमय यह महासेतु-,
बंधन को करूँ नमन मैं !
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दो हृदयों के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं,
मित्र-भाव की ओर,
विश्व की गति को मोड़ रहे हैं,
घोल रहे हैं जो, जीवन-
सरिता में प्रेम-रसायन,
खोल रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन,
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को करूँ नमन मैं...
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उठे जहाँ भी घोष शांति का,
भारत स्वर तेरा है,
धर्मदीप हो जिसके भी,
कर में वह नर तेरा है,
तेरा है वह वीर,
सत्य पर जो अड़ने आता है,
किसी न्याय के लिए,
प्राण अर्पित करने आता है,
मानवता के इस ललाट,
वंदन को करूँ नमन मैं !
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