अष्टावक्र कथा / अष्टावक्र गीता
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राजा जनक के दरबार में वरुण के पुत्र को अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया, और वरुण / सागर-सम्राट* ने अष्टावक्र के पिता को मुक्त कर दिया तो राजा ने अष्टावक्र से अपनी उस जिज्ञासा प्रश्न का समाधान किए जाने की प्रार्थना की जिसका समाधान राजा जनक के दरबार के बड़े बड़े पंडित और स्वयं अष्टावक्र के पिता भी नहीं कर सके थे, जिसके लिए उन्हें वरुण ने बन्दी बना लिया था।
तब अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा :
राजन्! क्या तुम अपनी इस जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करने के लिए इस पूरे राजपाट, महल और उस संपूर्ण सुरक्षा को दाँव पर लगाने के लिए अभी ही उद्यत हो?
राजा जनक ने कहा : अवश्य ही! आप बस आज्ञा करें!
तब अष्टावक्र ने कहा तुम मेरे साथ वन को चलो, क्योंकि इसका उपदेश यहाँ नहीं दिया जा सकता।
तब राजा ने एक उत्तम रथ मँगवाया जिसमें अष्टावक्र आरूढ हुए, और राजा स्वयं अश्व पर आरूढ हो उस रथ के पीछे पीछे चला। कुछ थोड़े से और सैनिक राजा की आज्ञा से उनके साथ पीछे पीछे अश्वों पर आरूढ होकर चल रहे थे।
जब वे नगर से बहुत दूर वन में पहुँच चुके तो अष्टावक्र ने राजा से कहा :
"हाँ अब कहो तुम्हारा क्या प्रश्न है!"
"भगवन्! मेरा प्रश्न वही है जिसे वरुण के पुत्र ने मेरे दरबार के पंडितों से पूछा था और उन वेदों में पारंगत पंडितों में से कोई भी जिसका संतोषप्रद उत्तर नहीं दे सका था इसलिए उसे वरुण का बन्दी होना पड़ा था।
"शास्त्र के अनुसार ज्ञान, -जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह आत्मज्ञान निमिषमात्र में हो सकता है। क्या यह सत्य है?"
अष्टावक्र बोले :
"राजन्! संसार की समस्त अनित्य वस्तुओं और पदार्थों आदि से तीव्र वैराग्य और सत्य, एकमात्र शाश्वत सद्वस्तु अपनी नित्य और शुद्ध बुद्ध आत्मा अर्थात् अपने ऐसे उस सच्चे स्वरूप को जानने की प्रबल उत्कंठा होने पर क्षणमात्र का समय भी इसके लिए पर्याप्त होता है। राजन्! क्या तुममें विषय-मात्र के प्रति इतना प्रबल वैराग्य है?"
"यह कैसे सिद्ध होगा?"
"राजन्! यह तो इसकी परीक्षा करने से ही स्पष्ट हो सकता है।"
"भगवन्! मैं इस परीक्षा के लिए प्रस्तुत हूँ!"
तब अष्टावक्र बोले :
"मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्यज...
चित्त से समस्त विषयों का आमूल त्याग हो जाते ही तत्क्षण ही तुम्हें यह प्राप्त है। क्या तुमने अपने चित्त से विषयमात्र को ही विसर्जित कर दिया है और क्या तुम्हें आचार्य के वचनों के प्रति पूर्ण और सन्देहरहित निष्ठा है?"
"भगवन्! आदेश करें, मैं प्रस्तुत हूँ।"
"राजन्! यदि तुमने अपने चित्त से सम्पूर्ण अन्तर्बाह्य विषयों का त्याग कर दिया है तो क्या तुम्हारे मन में कल्पना, स्मृति, लोभ, भय, आशा, चिन्ता और भय आदि के लिए स्थान रहा। वह क्या शेष रहा जिसे तुम तुम्हारा कहकर उसकी चिन्ता कर सको!"
उस समय राजा अश्व की पीठ से उतर ही रहा था।
अष्टावक्र के वचन सुनते ही उसका वह चित्त ही विसर्जित हो गया जिसमें मेरा नामक वृत्ति सतत सक्रिय थी, उस चित्त का लय हो गया था। तब वह स्तब्ध और अवाक् होकर वह शुद्ध बोधमात्र था जिसमें अपने या दूसरे की कल्पना तक नहीं थी।
न जाने कितने काल तक वह उस अवस्था में स्थिर रहा, क्योंकि वहाँ काल का भी अतिक्रमण हो चुका था। काल भी कल्पना ही तो है!
तब अष्टावक्र ने राजा और सैनिकों से वापस महल और दरबार चलने के लिए कहा।
जब वे लौट चुके तो अष्टावक्र ने राजा से प्रश्न किया :
राजन्! क्या तुम्हारी जिज्ञासा शान्त हुई?
राजा जनक ने आचार्य को साष्टाङ्ग प्रणाम कर अपने अहोभाव की भावना अभिव्यक्त की।
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अभी अष्टावक्र गीता के अध्याय 3 के श्लोक 2 को अपने पोस्ट में उद्धृत करते हुए यह प्रश्न मेरे मन में उठा :
क्या अज्ञान ignorance का नाश किया जाना संभव भी है?
क्या इससे अधिक सरल यही नहीं है कि मोह से उत्पन्न हुए भ्रम का ही निवारण कर लिया जाए?
उपरोक्त श्लोक इस प्रकार से है :
आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।।
शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे।।
इस प्रकार लोभ और भय की उत्पत्ति भ्रमवश है यह भ्रम संसार के और आत्मा (अपने आप) के स्वरूप दोनों ही के संबंध में है। संसार का भ्रम फिर भी प्रत्यक्ष है जिस पर चिन्तन कर उस भ्रम को मिटाना जा सकता है - जैसे कि यह प्रश्न करना कि संसार नित्य है या अनित्य है? फिर नित्य क्या है? क्या प्रश्नकर्ता चेतना ही संसार की अपेक्षा नित्य नहीं है? प्रश्नकर्ता (मैं) भी जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति में बनता मिटता, बदलता रहता है। क्या यह अपने आपको जान सकता है?
इसलिए साँख्य प्रधान उपाय है, कर्म-योग गौण उपाय है। दोनों ही मनुष्य की उत्कंठा और वैराग्य की प्रबलता होने पर ही फल प्रदान करते हैं।
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यह कथा जो इतिहास के अनेक जाने-अनजाने पहलुओं / पक्षों को इंगित और सूत्रबद्ध करती है, विगत सात आठ वर्षों से मेरे मन-मस्तिष्क में उस रूप में खेलती घूमती रही है और उसे ही मैंने अपने
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तथा
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ब्लॉग्स में अनेक पोस्ट्स में व्यक्त किया है। वाल्मीकि रामायण, स्कन्द पुराण, कठोपनिषद् तथा श्रीमद्भगवद्गीता आदि मेरे लिए इसका आधार और प्रमाण भी हैं।
वरुण, जो जल और समुद्र का, वैदिक देवता और पश्चिम दिशा का भी देवता है, इसी प्रकार यम, जो मृत्यु का देवता है, ये सभी आधिदैविक सत्ताएँ, वैदिक देवता हैं।
मृ मृत्यु से व्युत्पन्न मेरु, और मरुत् समुद्र और वरुण, आप् और अग्नि अम्बर (umbra penumbra umbrella) अभ्रम् वेदवाणी में सभी का वर्णन है। मेरु, आमेर आदि क्षेत्र मरु के ही पर्याय हैं। जर्मन भाषा में समुद्र को मीर (Meer) कहा जाता है। इसी प्रकार अष्टावक्र की कथा अनेक दृष्टियोंं और अर्थों में पूर्व पश्चिम को संबंधित करती है। श्रीमद्भगवद्गीता, कठोपनिषद् में कवि उशना के उल्लेख से भी इसी प्रकार अनुमान लगाया जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कपिल मुनि का उल्लेख सिद्ध की तरह है। और कपिल मुनि उसी साङ्ख्य के आचार्य हैं जिसका उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रारंभ में, - दूसरे ही अध्याय में अर्जुन को दिया। फिर इसी ज्ञान का उल्लेख इस रूप में भी है कि कैसे परमात्मा ने यह ज्ञान विवस्वान् को प्रदान किया, विवस्वान् ने मनु को मनु ने इक्ष्वाकु को, और फिर महान काल के प्रभाव से इस ज्ञान का लोप हो जाने के बाद परमात्मा ने ही भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित होने पर अर्जुन को भी दिया। इक्ष्वाकु से जहाँ भगवान् श्रीराम के कुल का उद्भव हुआ, वहीं यह भी स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि साँख्य जो कि पथविहीन भूमि (Truth is pathless land) है, और योग अर्थात् (निष्काम) कर्मयोग का फल एक ही है किन्तु मनुष्य को चाहिए कि वह अपने स्वभाव के अनुसार अपनी निष्ठा को भली प्रकार से जानकर किसी एक ही उपाय का आलंबन ग्रहण करे।
प्रकारान्तर से, भारत और पश्चिम, अष्टावक्र-गीता या अष्टावक्र की कथा के क्रमशः नायक और प्रतिनायक हैं।
वैश्विक सन्दर्भ में आज का जो विश्व, जिसे विकास और उन्नति कहता और मान बैठा है, वह भय और लोभ, सुरक्षा और सुरक्षा की चिन्ता से ग्रस्त है। धन-लोलुपता, काम-लोलुपता और यश, स्वामित्व और ऐश्वर्य की लोलुपता उसके प्रेरक निर्देशक तत्व हैं।
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