December 01, 2009

कविता - लौटते हुए !

लौटते हुए
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कितनी बार सोचा है,
कि अब तुम्हारे बारे में नहीं सोचूँगा,
लेकिन हवा का हर झोंका,
पेड़ों की लचकती शाखें,
फूलों के चटखते रंग,
बरबस खींच ले जाते हैं,
-तुम्हारी यादों में !
और मैं न जाने किस पल अचानक पाता हूँ,
कि मैं भटक गया हूँ,
-उन बीहड़ों में,
जो एक अजीब 'सुख' भी देते हैं !
लेकिन अब आदत हो रही है,
अब ख़याल रहता है,
कि कब कोई याद,
मन के किसी कोने में,
अचानक उभर आती है ।
जैसे उस फूल पर वह छोटी सी चंचल चिड़िया,
अचानक आती है,
अपनी लम्बी नुकीली चोंच से रस चूसकर 'फुर्र' हो जाती है,
(और शायद नहीं जानती कि फूल को कहीं कोई चोट तो नहीं पहुँची ।)
मैं भी गुज़र जाने देता हूँ,
-तुम्हारी यादों को,
अब, मैं नहीं जोड़ता, उन्हें किसी ख़याल से,
जैसे ड्राइंग-रूम में रखे,
मनी-प्लांट और केक्टस,
तुम्हारे जाने के बाद से,
धूल और उपेक्षा को झेल रहे हैं,
मकड़ियों के जालों से आच्छन्न हो रहे हैं,
पर सुखी हैं, क्योंकि अब भी शायद किसी कोने में आस लगाए हैं,
कि तुम आओगी किसी दिन ।
मैं जानता हूँ, कि अब तुम सिर्फ़ यादों में ही आओगी ।
लेकिन अब मैं नहीं जोड़ता,
तुम्हारी याद को,
किसी ख़याल से ।
अब नहीं भटकूँगा मैं उन बीहड़ों में,
बार-बार,
-अपने-आपको लहू-लुहान करता हुआ ।
लौट आता हूँ मैं बार-बार,
अपने अनकहे अकेलेपन में,
अपने खा-----ली----पन में ,
-क्योंकि अब रास आ रहा है वह मुझे !
हाँ, अपने-आपसे बदला लेने का 'सुख'
शायद ज़्यादा तल्ख़ है,
तुम्हारी यादों के झूठे 'सुखाभास' से !

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