November 17, 2009

उन दिनों -36.

उन दिनों -36.
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मेरी डायरी से -
सचमुच, क्या मनुष्य को धर्म की ज़रूरत है ? ईश्वर की ज़रूरत है ? मनुष्य कौन ?
मेरे मन में प्रश्न उठा । मेरे सामने कई उदाहरण हैं । अविज्नान, नलिनी, नीलम, रवि, और 'सर' । इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जो वास्तव में धर्म या ईश्वर या अध्यात्म के बारे में कोई चर्चा करता हो । क्या ये सब 'अधार्मिक' या 'नास्तिक' हैं ? क्या वे शास्त्रों और कर्म-काण्ड के विरोध में हैं ? नहीं, उनकी तो वे चर्चा या उल्लेख ही नहीं करते । हाँ, ठीक है, उन्होंने शास्त्रों और धर्म तथा उसकी परंपराओं आदि का काफी अध्ययन किया है, लेकिन वे उसकी बात क्यों नहीं करते ? नलिनी ने अवश्य ही एक नए सिरे से बात शुरू की है । उसने कहा है कि 'ज्ञान' तो काल से अछूता तत्त्व है, लेकिन इन्द्रिय-ज्ञान, अनुभूतिपरक-ज्ञान, 'जानकारी'-परक सारा 'ज्ञान' 'शब्द-गत' होता है, ... और वस्तुत: वह 'अज्ञान-' का ही एक ऐसा रूप है, जिसे हम पहचान ही नहीं पाते । 'कौतूहल' हमें 'जानकारी' के विस्तार में ले जाता है, और भले ही वह अनंत हो, वैसा 'ज्ञान' क्या सीमित ही नहीं होता ? जबकि 'विस्मय' की भूमिका में जिस 'ज्ञान' का उदघाटन होता है, वह असीमित, अज्ञात से अज्ञात में गतिशील चेतन-तत्त्व मात्र है , ... .... ।
हाँ, इसे मैं समझ सकता हूँ, लेकिन क्या धर्म-शास्त्र उसी की चर्चा नहीं करते ? फ़िर .........?!
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'लर्निंग'/'अनलर्निंग'
"क्या है यह, जिसके बारे में नलिनी कह रही है ?"
-नीलम ने पूछा ।
'सर' निर्विकार भाव से उनकी ओर देख रहे थे ।
नलिनी भी उत्सुकता से 'सर' के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी ।
"जब हम कुछ जानते हैं, तो जानने की इस गतिविधि में वस्तुत: क्या होता है ?"
-'सर' ने प्रश्न किया ।
अनंत धीरज हम सबका अभिन्न साथी था । कोई जल्दी नहीं, मन की आधी से अधिक चंचलता और वाचालता तो यह धीरज ही मिटा देता था । यह हमें किसी ने सिखाया हो, ऐसा नहीं था, यह हमारे बीच एक ऐसे मौन साथी के रूप में आकर कब शामिल हो गया था इस ओर कभी हमारा ध्यान तक नहीं गया था । शायद यह 'सर' की उपस्थिति का असर था, लेकिन मेरा संशयग्रस्त मन कहाँ ऐसी बातों पर विश्वास करता ?
"हमारा समस्त 'जानना' तीन में बँटा होता है, जैसे मैं इस शहर के बारे में 'जानता' हूँ, या लोगों के बारे में, साइंस या आर्ट के बारे में, भाषाओं आदि को, 'तकनीक' को, 'जानता' हूँ । यह 'जानना' इस प्रकार का 'ज्ञान' है, जो लगातार कम या अधिक होता रहता है, 'अभ्यास-गत' 'ज्ञान' को भी इसमें शामिल किया जा सकता है । जैसे - जैसे मेरी उम्र बढ़ती जा रही है, मैं कुछ बातें भूलने लगा हूँ । अब इस 'भूलने' में सभी तरह की बातें हैं । भौतिक-जानकारियाँ, लोगों, वस्तुओं, विभिन्न विषयों के प्रति मेरी मान्यताएँ , .... ... तात्पर्य यह कि सारा ज्ञान, जो 'स्मृति' से बँधा होता है, धीरे-धीरे खोता चला जा रहा है । और मुझे इसमें न तो कुछ अस्वाभाविक लगता है, न इससे कोई डर या अफ़सोस होता है । एक वक्त था, जब मुझे अपनी याददाश्त पर गर्व महसूस होता था । लेकिन फ़िर ऐसा भी एक दौर आया कि मैं अपनी याददाश्त को मिटा डालने के बारे में सोचने लगा था । उस दौरान मैं सचमुच बहुत पीड़ा और क्लेश से गुज़र रहा था । और फ़िर सचमुच मेरी याददाश्त चली गयी थी । कई दिनों तक मैं ऐसी मानसिक स्थिति में पड़ा रहा कि कह नहीं सकता । बहुत दिनों बाद मेरी याददाश्त लौट आई थी । उस बीच मैं सबकी नज़रों में 'पागल' कहलाता, लेकिन रौशनी की एक किरण के सूत्र ने मुझे इस तरह बाँधकर बचा लिया कि मैं धीर-धीरे लौट आया । हाँ, लेकिन मेरी याददाश्त का बहुत सा हिस्सा हमेशा के लिए मिट गया । "
-'सर' कह रहे थे ।
"आज सोचता हूँ, कि बहुत खुशकिस्मत था मैं, क्योंकि जीवन में सिर्फ़ 'लर्निंग' ही नहीं, 'अनलर्निंग' भी बहुत ज़रूरी है । हम सोचते हैं कि 'ज्ञान' को इकट्ठा करते चले जाना ही सर्वोपरि महत्त्व की चीज़ है, लेकिन जिन दिनों मैं अपनी याददाश्त खोने/मिटने के उस दौर से गुज़र रहा था, एक दूसरी भी महत्त्वपूर्ण बात जो घट रही थी, वह यह थी कि अनावश्यक चीज़ें खोतीं जा रहीं थीं । उदाहरण के लिए, यदि कभी रास्ते में चलते-चलते, स्कूल से आती अपनी बिटिया पर मेरी नज़र जाती, तो मुझे पहले पल यही लगता कि इस लड़की को कहीं देखा है मैंने, शायद जानता हूँ इसे मैं ! जब तक वह बहुत समीप नहीं आ जाती, तब तक यही अनुमान मेरे मन में मँडराता रहता । फ़िर अचानक याद आता, -अरे ! यह तो अपनी अपर्णा है !"
-वे कुछ खो से गए कहीं ।
"लेकिन मुझे हैरत यह देखकर होती थी कि मस्तिष्क के दूसरे कामों में मुझसे कभी कोई गलती नहीं होती थी, या उतनी ही गलतियाँ होतीं थीं, जो पहले भी सामान्य रूप से हुआ करती थीं । लोग मुझसे डरते थे । मेरी गंभीरता के आवरण के नीचे छिपी मेरी असहायता पर शायद ही किसी की नजर जाती होगी । और ऐसा अक्सर होता था, मैं न सिर्फ़ लोगों को भूलने लगा था, बल्कि कभी-कभी मैं जिस काम को करने के लिए निकलता, उसे ही भूल जाया करता था । मैं तमाम 'ज्ञान' को भूलने लगा था । "ईश्वर ?" -पहले यदि कोई कहता तो मैं घंटों उसके अस्तित्त्व के पक्ष और विपक्ष में ढेर सारी दलीलें दे सकता था, लेकिन इस स्थिति में आने के बाद तो मुझे पहला ख्याल यही आता था कि इस 'शब्द' को पहले भी शायद सुना है । वहाँ मैं सचमुच असहाय था । मेरा सारा 'ज्ञान' हवा हो चुका था । लेकिन, जैसा मैंने कहा, मैं खुशकिस्मत था कि कभी मेरी इस असहायता की पोल नहीं खुली । भीतर एक सुनसान था, बीहड़ था, जहाँ कोई पहचान बाकी नहीं रहती थी, शायद एक 'ब्लैक-होल' था, जहाँ जो दूसरी 'पहचानें' भूले-भटके कभी पहुँच भी जाती थीं, तो विलुप्त हो जाती थीं । "
उनके चेहरे पर एक स्थिरता , शान्ति थी ।
"फ़िर पता चला कि सचमुच यह 'अनलर्निंग' ही तो था, जो अनायास मुझ पर कृपालु हो उठा था । हाँ कुछ चीज़ें अवश्य ही ऐसी गिनाईं जा सकतीं हैं, जिनके बाद यह सब होने लगा था । लेकिन वे पूर्व-स्थितियाँ इस सब का 'कारण' रही होंगी, ऐसा मुझे नहीं लगता । "
-वे चुप हो गए ।
मैंने मन ही मन नलिनी को धन्यवाद दिया कि उसके बहाने 'सर' ने आज कुछ और रहस्य हमारे सामने खोले ।
एक अद्भुत यात्रा चल रही थी, जिसमें हम सब सहभागी थी, हमसफ़र थे, लेकिन हर कोई अपनी अलग ही एक यात्रा पर था। हाँ हम संवाद कर रहे थे, और हममें यही एक चीज़ थी जहाँ हमें लगता था कि जीवन कितना विस्मयप्रद है, -उस अनुभूति में भी हम सहभागी थे, साथ-साथ, पर अलग-अलग भी।
"Jointly, and severally !"
-मैंने डायरी में 'नोट' किया ।
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1 comment:

  1. बहुत दिनों के बाद आपके ब्लाग पर आना हुआ । आपकी डायरी की 36 कड़ियां आ चुकी है अब तक । यह पोस्ट पूरा तो नहीं पढ़ सका पर आराम से इन्हें पढ़ने की इच्छा है । इन पोस्टो के माध्यम से एक नये अनुभव से गुजरूगां । आभार

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