उन दिनों -35.
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मेरी डायरी से :
नलिनी और 'सर' के बीच की बातचीत सुनते समय प्रकाश की जो कौंध मेरे मन-मस्तिष्क में स्फुरित हो उठी थी, उस कौंध में यद्यपि 'समय' नहीं था, लेकिन भूलवश हम उसे 'क्षण'-मात्र कह बैठते हैं। यही अज्ञान- का प्रारंभ है । उस प्रकाश में चूँकि 'समय' नहीं होता, इसलिए उसे हम शाश्वत, या काल से अविच्छिन्न अस्तित्त्व कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा । और काल है, 'विचार' की गतिविधि । गतिविधि है 'समय' के अन्तर्गत । लेकिन जहाँ काल ठिठक गया है, वहाँ 'विचार' कैसा ? और 'स्मृति' कैसी ? कितनी हैरानी होती है यह सोचकर कि 'उस' काल से परे की स्थिति , और इस 'सोच' करनेवाले 'मन' के बीच कोई पुल नहीं है । वे दोनों एक दूसरे से नितांत अपरिचित हैं , जब एक होता है तो दूसरा नहीं होता । क्या इसका यही अर्थ नहीं हुआ कि वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ? प्रकाश सचमुच मुझे अपने में समा रहा था । नलिनी की कविता का एक-एक शब्द अर्थ की तरह मेरे भीतर गूँज रहा था । 'वृक्ष,पत्ता, चाँद, सूरज, धरती, आकाश, सब मैं ही तो हूँ । मैं कहाँ टूटता हूँ ? क्या सौन्दर्य, रूप, कभी टूटते हैं ? जो अपने-आप से टूटा है, वह कब किसी से जुड़ सका है ? '
यह अपने-आपसे टूटना कब होता है ?
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आज शुक्लाजी भी आए थे । चर्चा की शुरुआत करते हुए बोले,
"हम नलिनी की बातों के क्रम में ही आगे चर्चा करना चाहते हैं । नलिनी के प्रिय विषय हैं, 'विस्मय' और 'कौतूहल',
उसका कहना है कि उन पलों में जब हमें विस्मय और कौतूहल का फर्क पता नहीं होता, यदि हम कौतूहल की दिशा में आगे बढ़ जाते हैं, तो तमाम जानकारियाँ हासिल करने लग जाते हैं, तब हमारा 'ज्ञान' का घड़ा भरना शुरू ही होता है । हालाँकि उसमें भी बहुत रोमाँच और रस है, इससे इनकार नहीं, लेकिन तब हम उस दिशा में चले जाते हैं, जो कि विस्मय के विपरीत होती है ।"
"हाँ, रोचक है यह तथ्य !"
-'सर' बोले ।
और मुझे लग रहा था कि यह मेरी अपनी डायरी में लिखे शब्दों की ही अनुगूँज तो है, क्या उसी बिन्दु पर कोई अपने-आपसे 'टूटता' है ? क्या नलिनी का संकेत उसी ओर था ?
"क्या हमें पुन: उस बिन्दु तक लौटना ज़रूरी नहीं है, जहाँ से हम राह भटक गए थे ?"
-शुक्लाजी ने पूछा ।
"हाँ, ... ... क्यों कौस्तुभ ?"
'सर' ने अकस्मात् ही मुझे पकड़ लिया था । यही तो मेरी समस्या की जड़ था, जिसकी ओर मेरा ध्यान 'सर' ने पहले भी कई बार खींचा था । यदि मैं 'गुरु' कई भाषा में सोचता तो ज़रूर इस पर रहस्य का रंग चढाकर अपने-आपको और 'सर' को भी गौरवान्वित करने में लग जाता । लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं था । वे बैठे हुए थे मेरे पास ही, सोफे पर, और मैं उसी सोफे के दूसरे सिरे पर था । उस छोटे से सोफे पर हमारे बीच इतनी दूरी भी तो नहीं थी कि कोई तीसरा वहाँ बैठ सके ।
"हाँ, शायद !"
-मैंने कुछ हिचकते हुए जवाब दिया ।
"लेकिन कैसे ?"
-शुक्लाजी ने बहुत देर बाद पूछा था ।
'सर' इस बीच खिड़की से बाहर देखते रहे थे । मैं भी देख रहा था, डी आर पी लाइन के अंग्रेजों के बाद बने उस बँगले में अभी रौशनी नहीं थी । शाम का आलोक बाहर फ़ैल रहा था । एक अकेला सा बादल सूरज के प्रकाश में चमक रहा था । धीरे-धीरे आकार बदलता हुआ । पहले वह ऊँचाई में किसी पहाड़ी के सामने खड़े ताड़ के एक ऊँचे वृक्ष जैसा दिखाई दे रहा था, जिसकी ऊँचाई घटती , और चौड़ाई बढ़ती चली जा रही थी, और अब वह पहाड़ी से एकाकार हो चला था । पहाड़ी, जो सोने के बड़े ढेर सी चमक रही थी, धीरे-धीरे चपटी होने लगी थी, और अब तो वह समुद्र में उठती ऊँची लहर बन गयी थी । पहाड़ी के स्थान पर सागर लहरा रहा था, पिघले स्वर्ण जैसी जल-राशि के रूप में ।
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