November 10, 2009

उन दिनों -34.

उन दिनों -34.

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मेरी डायरी से -

अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:... ... ...

और बाबा की याद आते ही गीता का यह श्लोक भी अचानक याद आया ।
"अच्छा, तो 'सर' और नलिनी 'इसी' 'ज्ञान' की बातें कर रहे थे,"
-मैं सोच रहा हूँ ।
और फ़िर जे कृष्णमूर्ति की बहुत प्रसिद्ध पुस्तक "ज्ञात से मुक्ति" के बारे में ख़याल आता है ।
यथार्थ-ज्ञान क्या है, इस विषय में नलिनी की बातें सुनकर कल जो प्रकाश मन-मस्तिष्क में कौंधा था, वह अब स्पष्ट हो रहा है ।
'ज्ञान' को 'पाने' की बात ही व्यर्थ है ।
'ज्ञान' तो पहले ही से है, उस पर अज्ञान-आवरण चढ़ जाता है , अत: 'अज्ञान'-निवारण होना आवश्यक है, ज्ञान का आविष्कार ही होता है,... ... ... !
एक और सन्दर्भ याद आता है, ईशावास्य उपनिषद से, :
"... ... ततो भूय इव ते तमो विद्यायां रता: ॥ "

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सचमुच क्या 'ज्ञान' को पाने की दौड़ में हम यथार्थ-ज्ञान से दूर ही नहीं हो रहे हैं ? 'ज्ञान' हमें सुरक्षा देता है, -या सुरक्षा का आश्वासन, आशा । -लेकिन किससे ? 'किसे' ?

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नलिनी ने जे कृष्णमूर्ति को भी पढ़ा था, श्री रमण महर्षि को भी, पातंजलि के योग-शास्त्र को भी, और श्री निसर्गदत्त महाराज को भी । लेकिन वह बिल्कुल 'एबीसी' से प्रारंभ करना चाहती थी । कोरी स्लेट लेकर आई थी । कविताएँ लिखती थी, और नीलम उसकी 'फैन' थी । शुक्लाजी तो उसके मुरीद थे । रवि चाहता था कि उसके अखबार में नलिनी की कुछ कविताएँ छपें, लेकिन वे कविताएँ नलिनी की 'व्यक्तिगत' वस्तुएँ थीं । -ऐसा नलिनी का कहना था ।
थीं तो वे 'प्रेम-कविताएँ' ही, लेकिन नलिनी का कहना था कि वे सिर्फ़ 'कविताएँ' हैं । 'काव्य' का उसका अपना कोई पैमाना था । और हो भी क्यों न ? क्या कोरी स्लेट पर लिखी कविताएँ अद्भुत नहीं होती होंगीं ? जैसा कि वह कहती भी थी, ये कविताएँ विस्मय से ही उपजी हैं, इनका भावुकता से कोई रिश्ता नहीं है, ये किसी को सुनाने के लिए हैं भी नहीं , जैसे जंगल में किसी पत्थर पर पास के वृक्ष से झरते फूल, आकाश से गिरती ओस की बूंदों से किया जानेवाला अभिषेक, और पक्षियों की चहचहाहट में गाया जानेवाला कोई मन्त्र, या स्तोत्र होता है । इसे हम समझ भी तो नहीं सकते ! मुझे पहले लगता था कि वे 'रहस्यवादी' होंगी, और कोई विद्वान् उनका तात्पर्य समझा सकेगा, लेकिन फ़िर समझ में आया कि वे वास्तव में उसकी निजी चीज़ें थीं ।
आज जब 'सर' ने उससे इस बारे में पूछा, तो उसने बताया ।
"एक सुना रही हूँ,"
-वह बोली ।
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'विस्मय' मेरा 'गुरु' था,
उसने मुझे 'मौन-दीक्षा' दी ।
उसने ही सिखाया कि मैं कुछ नहीं जानती ।
और यह कुछ न जानना ही,
'जानने' को 'जानना' है ,
-'जानने' का 'जानना' है,
-'जानना' ही अपने-आपको जानता है,
-लेकिन नि:शब्द ही !
'जानना' ही 'जानने' को 'जानता' है,
-लेकिन उसकी कोई 'स्मृति' नहीं बनती ।
तब 'मन' खंडित नहीं होता ।
-लेकिन 'अब' वह खंडित है ।
अपने-आप से टूटकर,
कब कोई जुड़ सका है,
-किसी से ?
जब देखती हूँ ,
पेड़ से गिरा कोई पत्ता,
अपना वज़ूद याद आता है ।
मैं टूटकर भी कहाँ टूटी ?
पूरा पेड़ है, मेरे जैसा,
पत्ता टूटने से पेड़ कहाँ टूटा ?
और पत्ता भी कहाँ टूटा ?
मेरा वज़ूद तो है अब भी साबुत ।
देखते नहीं तुम,
रात के अंधेरे में, ज्योत्स्ना की गोद में खिलता हुआ मुझको ?
सुबह के सूरज को,
मुझ पर धूप लुटाते ?
और धरती को उस पत्ते को ,
अपने आँचल में समेटते ?
-जो अभी-अभी पेड़ से झर कर गिरा है,
पीला, पूरा,
-अक्षुण्ण,
सौन्दर्य में, ताजगी में, रंग में ?
क्या वे सब कहीं टूटते हैं !
यदि तुम सोचते हो कि मैं पत्ता हूँ,
तो मैं ज़रूर एक पत्ता ही तो हूँ,
पर वृक्ष भी तो हूँ मैं,
-हवाएँ और रौशनी भी तो हूँ मैं, सूरज, धरती, चन्दा, और आकाश भी तो हूँ मैं !
-मैं नहीं टूटती !
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'सर' विस्मय से उसकी कविता को सुनते रहे । और हम भी । सचमुच इसमें समझने-समझाने के लिए न तो कुछ था, न ज़रूरत ही थी ।
"इसे शीर्षक नहीं दिया ?"
-रवि ने पूछ ही तो लिया ।
उत्तर में बस उसने हौले से सर हिलाकर 'नहीं' का संकेत दिया ।
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