November 09, 2009

उन दिनों - 33.

उन दिनों -33.

आश्चर्य-वत् पश्यति कश्चिदेनं ...


मेरी डायरी से :
सचमुच, 'सर', अविज्नान, नलिनी, नीलम और रवि से भी अभिभूत हूँ । 'सर' कहते हैं कि कार्य-कारण-नियम तो अपने को समझाने का एक तरीका है, लेकिन अगर ऐसा ही है तो सब कुछ संयोग ही है क्या ? क्या किसी भी 'घटना' की व्याख्या संभव नहीं है ? हम अपने 'ज्ञात' कारणों के आधार पर किसी 'घटना' या अभिक्रम (phenomenon) को समझने-समझाने की कोशिश करते हैं, और 'ज्ञात' से ही कुछ सूत्र खोजकर, उन्हें आपस में जोड़कर 'घटना' का कोई मानसिक चित्र बना लेते हैं । वह चित्र 'घटना' का यथार्थ प्रतिबिम्ब तक नहीं होता, लेकिन हम ऐसी ही असंख्य 'घटनाओं' की समग्रता में 'अपना' एक 'व्यक्तित्व' गढ़ लेते हैं, जो 'स्मृति' रूपी संग्रह में सत्य जान पङता है , जबकि स्मृति स्वयं ही एक संग्रह-मात्र होती है।
'जानने' को 'ज्ञान' मान बैठना कितनी असाधारण भूल है, गफलत ही तो है न ! फ़िर 'जानने' का यथार्थ तत्व, क्या है ? नीलम के उदाहरण से एक रौशनी सी कौंधी थी मन-मस्तिष्क में ।
आज की चर्चा सुनते-सुनते वे दिन याद हो आए जब बाबा गीता पढ़ते हुए ,
"आश्चर्य-वत्-पश्यति-कश्चिदेनं..."
इस श्लोक को कहते हुए उत्साहपूर्वक मुझे इसका अर्थ समझाने लगते थे ।
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"मैं यह सोच रही थी कि ज्ञान की तीन भूमिकाएँ होती हैं । "
नलिनी ने चर्चा की शुरुआत की ।
"प्रथम तो वह, जो किसी भी 'जीव' में जन्मजात ही 'होता' है । क्या 'देह' को रचने के लिए आवश्यक 'ज्ञान' देह के ही मूल-कणों ( cells) , जैव-कोशों में ही नहीं छिपा होता ? क्या 'सेल्स' या जैव-कोशों का अपना ही एक 'कोडेड' 'प्रोग्राम' पहले से ही उनमें नहीं छिपा होता ? क्या वह 'ज्ञान' ही नहीं है ?
अभी मैं उस बारे में विस्तार से नहीं कहना चाहती , अभी तो मैं उन दो भूमिकाओं के बारे में चर्चा करना चाहती हूँ, जिसे सामान्यत: हम 'ज्ञान' का नाम देते हैं ।
एक तो होता है 'विस्मय' से जुड़ा ज्ञान । जैसा कि हर बच्चे में जन्मजात होता है । उसे 'मैं' और 'पर' का भी आभास तक नहीं होता, जब वह इन्द्रिय-संवेदनाओं से परिचित ही हो रहा होता है । वह नहीं जानता कि उसकी इन्द्रिय-संवेदनाएँ देह के भीतर तक ही सीमित हैं । जब उसे चोट लगतीहै, तो ही उसे 'मैं' और 'पर' की भिन्नता का अहसास होने लगता है , उससे पहले उसकी 'चेतना' इन्द्रिय-ज्ञान की सीमितताओं से अपरिबद्ध और अपरिचित होती है । क्या तब वह 'ज्ञान-शून्य' होता है ? यदि शब्दों और उनकी स्मृति को ही ज्ञान कहें तो वह उस दृष्टि से अवश्य ही ज्ञानशून्य होता है, और हम उसे 'अबोध' भी कहते हैं , लेकिन वह अबोध होना भी कितना अद्भुत और पावन है !
क्या हम इसी लिए कृष्ण और राम के बाल-रूप से अभिभूत नहीं होते ? क्योंकि तब थोड़ी देर के लिए ही सही, हम तथाकथित ज्ञान के कलुष से ऊपर उठ जाते हैं न !
ज़ाहिर है कि वह भी वास्तविक 'ज्ञान' की ही, -सहज 'ज्ञान' की ही एक अवस्था है ।
फ़िर इन्द्रिय-संवेदनाओं से परिचित होने के बाद, 'मैं' के रूप में 'अपने' एक 'देह-विशेष' होने के 'ज्ञान' के संचित और दृढ़ होने के बाद 'मेरी स्मृति' का जन्म और विस्तार होता है । उसका विकास भी होता है कि नहीं, इस पर मुझे थोड़ा शक है ।
उस अवस्था में बाल-मन 'ज्ञान'की जिस भूमिका में होता है, वहाँ विस्मय का तत्त्व प्रधान होता है । 'स्मृति' का उपद्रव शुरू होने के बाद विस्मय 'कौतूहल' में बदल जाता है । तब मन 'जानकारी' एकत्र करने में उत्सुक हो जाता है । हालाँकि उस ज्ञान की उपयोगिता पर संदेह नहीं किया जा सकता, लेकिन विस्मय की भूमिका में हम जिस ज्ञान में 'स्थित' होते हैं, उस ज्ञान की तुलना में 'स्मृति' से जुडा ज्ञान अवश्य ही 'अज्ञान' ही अधिक होता है । तमाम लौकिक ज्ञान वही है । कौतूहल में मनुष्य 'मैं' और 'मेरा संसार' इन दो सन्दर्भों में 'जानकारी' एकत्र करता रहता है, जबकि 'विस्मय' में उसे न तो संसार का और न स्वयं काही बोध रह जाता है । वह 'प्रकृति' है। ऐसा हम अभी कह रहे हैं । लेकिन क्या वहाँ 'भान' समाप्त हो जाता है ? स्पष्ट है कि वहाँ 'ज्ञान' का ऐसा प्रकार अवश्य है,जिसमें 'मैं' और 'पर' का द्वैत, उनकी भिन्नता का विचार नहीं होता, कल्पना तक नहीं होती ।
फ़िर जीवन में हम लगभग प्रतिदिन ही बार-बार ऐसे क्षणों से रूबरू होते रहते हैं, जिसे 'विस्मय' कहा जाता है, लेकिन विस्मय के कौतूहल में बदलते-बदलते हम उलझते चले जाते हैं ।"
नलिनी ने अपनी बात समाप्त की ।
"अच्छा, 'विस्मय' और 'कौतूहल' के अन्तर के बावजूद, 'जानने' का तत्त्व क्या यथावत ही अक्षुण्ण ही नहीं है ?
क्या वह तत्त्व 'किसी' का होता है ?"
-'सर' ने प्रश्न किया ।
"याने आप इस 'हम' के अस्तित्त्व पर कुछ कहना चाहते हैं ?"
-नलिनी ने पूछा ।
"अवश्य, "
-'सर' बोले ।
"क्या है यह 'हम' ?"
"यह कौतूहल है या विस्मय ?"
-रवि ने मुस्कुराते हुए पूछ ही तो लिया ।
"हाँ, इसे भी इस कसौटी पर कस कर देखो ।
-'सर' ने अविचलित भाव से उसका उत्तर दिया ।
"यह जो 'जाननेवाला' है, उसके यथार्थ तत्व के प्रति हमारा ध्यान जब जाता है, तो वह कौतूहल भी हो सकता ही, और विस्मय भी । यदि वह कौतूहल-मात्र है, तो हम शास्त्रों को पढ़कर भी उस कौतूहल का समाधान शायद पा सकते हैं , -या फ़िर सारे जीवन भर तमाम शास्त्रों को खंगालते रहकर भी भटकते रह सकते हैं, -अनिश्चित, असमंजस और अविश्वासयुक्त । और अगर यह वाकई विस्मय है, तो हम चित्त की उस भाव-भूमि पर ठहर सकते हैं , जिसकी बात नलिनी कह रही है । क्यों नलिनी ?"
-'सर' ने नलिनी से पूछा ।
नलिनी गदगद हो उठी । उसने प्रत्युत्तर में एक नज़र 'सर' को देखा और तत्काल ही आँखें बंद कर लीं ।
"क्या यह भावुकता थी ?"
-मैं सोच रहा था ।

>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -34. >>>>>>>>>>>>>>>>

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं ..., जे कृष्णमूर्ति (ज्ञात से मुक्ति)>>>>>>>>>>>>
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