स्मरणीय और बहुत रोचक भी था।
सुबह किसी आध्यात्मिक विभूति का वचन पढ़ा :
"प्रत्येक ही मनुष्य की मृत्यु की घड़ी पूरी तरह से सुनिश्चित होती है, यद्यपि यह आवश्यक नहीं कि उस समय के उपस्थित होने से पहले तक भी किसी को शायद ही इसका अनुमान हो सके। वह घड़ी शान्तिपूर्वक स्वीकार हो सके इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि अपने पूरे हृदय से उन सभी ज्ञात-अज्ञात लोगों से और सभी प्रकृतियों, जड-चेतन वस्तुओं से जाने-अनजाने भी अपने द्वारा किए गए ऐसे उन समस्त कार्यों के लिए बिना अपेक्षा किए क्षमा माँग ले और यदि उन्होंने भी जाने-अनजाने कोई अपराध उसके प्रति या अन्याय उस पर किया हो, तो उन्हें भी उसके लिए अपने पूरे हृदय से वह उन्हें क्षमा कर दे। और यह कार्य जितने शीघ्र हो सके, उसे कर लेना चाहिए। यह आवश्यक और / या संभव भी नहीं है कि इसकी घोषणा की जा सके। किन्तु अपने मन में ऐसी भावना यदि जागृत हो उठे तो इतना ही पर्याप्त है। अपनी उम्र के अंतिम वर्षों में तो ऐसा कर ही लिया ही जाना चाहिए।"
फिर एक और वचन याद आया :
"भूल सभी से हो सकती है, किन्तु मनुष्य को पहले अपनी भूलों पर ध्यान देना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए। यदि आवश्यक और संभव हो तो ही इसके बाद, दूसरों की भूलों के बारे में, अधिकार होने पर ही, कोई टिप्पणी करना उचित है।"
इसलिए इस पोस्ट के माध्यम से मैं उन सभी ज्ञात-अज्ञात लोगों से किसी अपेक्षा के बिना ही क्षमा याचना करता हूँ, जिनके प्रति मैंने जाने-अनजाने भी कोई अन्याय किया हो। और यह भी, कि यदि किसी ने मुझ पर जानते-बूझते हुए या अनजाने में भी कोई अन्याय किया हो तो मैं इसके लिए उन्हें क्षमा करता हूँ। अर्थात् मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है।
दूसरी रोचक बात यह हुई कि मनोयान ब्लॉग में अष्टावक्र गीता के अध्याय १ से १७ और १८ वाँ श्लोक पोस्ट किया। शाम को यूँ ही फुरसत में बैठे हुए मेरे अंग्रेजी ब्लॉग में एक कविता पोस्ट की, जिसका शीर्षक था :
"It's True!".
इन दोनों पोस्ट्स को अपने Whatsapp group के
"Truth is Pathless land."
में शेयर किया, जिन पर एक मित्र ने "श्रीदक्षिणामूर्ति-स्तोत्रम्" से एक श्लोक उद्धृत करते हुए टिप्पणी की। अर्थात् उन श्लोकों तथा उस कविता पर भी, दोनों को एक साथ संबद्ध करते हुए।टिप्पणी को पढ़कर मन-हृदय रोमांचित और गद्-गद् हो उठा।
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