कविता / 23-11-2022
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फिर भी इस पर चलना होगा!
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बीहड़ वन का जैसे दुर्गम!
जीवन का यह पथ निर्मम!!
क्यों कैसे यह, हुआ है निर्मम,
या है यह मनुष्य का भ्रम!
अवलोकन करना होगा!
यद्यपि अखंडित है जीवन,
फिर भी खंडित हर तन-मन!
तन की है, अपनी प्रकृति तो,
मन का भी है अपना स्वभाव,
प्राणों की अपनी ही गति है तो,
मति का भी है, अपना स्वभाव!
समन्वय सबका ही मनुष्य,
यह वर्तमान, भूत-भविष्य!
तन को पता नहीं है मन का,
प्राणों को पता नहीं है तन का,
मन को पता नहीं है मति का,
जीवन कुछ ऐसा, इस गति का!
जीवन-पथ क्या निर्मम है!?
या यह केवल कोरा भ्रम है!?
जब तक लक्ष्य कहीं है दूर,
चलते रहना होगा जरूर,
चलने से पथ निर्मित होगा,
स्नेहयुक्त, निर्मम या क्रूर!
यह पथ तो है ममता-विहीन,
यह इसीलिए तो है निर्मम,
यद्यपि इसमें शून्य ममत्व,
किन्तु भरा, अथाह अपनत्व!
अपनापन ही इसका है स्वरूप,
यद्यपि असंख्य हैं इसके रूप!
किसी एक में भी यह जब जब,
कुंठित होकर रह जाता रुद्ध,
उसको ही अपनत्व बाँटकर,
उसमें ही रह जाता अवरुद्ध!
जीवन का स्वतंत्र व्यवहार,
ऐसा ही इसका सर्वत्र संचार,
कुंठित यह अपनापन ही,
रहता अतृप्त, बन अहंकार!
जब तक पथ यह कुंठित है,
यह अहंकार भू-लुंठित है,
तब तक इससे मुक्ति नहीं,
तब तक इसकी मुक्ति नहीं!
अहंकार हो या निरहंता,
कुंठा, पीड़ा हो, या निर्ममता,
तब तक तो चलते रहना होगा,
फिर भी इस पर चलना होगा!
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