अफ़सोस!
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तुम्हारी ज़िन्दगी में छाया क्यूँ है इतना अन्धेरा!
क्या कभी इस रात का होगा सवेरा!
ग़मों ने क्यूँ बना ली है जगह दिल में,
ख़ुशी ने बसा लिया क्यों कहीं और डेरा!
क्या कभी ख़त्म भी होगा सिलसिला,
आशियाना अपना भी होगा कभी बसेरा!
हर रात के बाद हर रात क्या गुजरेगी यूँ ही,
क्या हर रोज घना ही होता रहेगा अन्धेरा!
तुम्हारी ज़िन्दगी में इतनी उदासी क्यों है,
कौन से दुश्मनों ने रची है साज़िश इसकी,
क्या उन दुश्मनों को डर नहीं है खुदा का,
या खुदा को नहीं है पता उनकी साजिश का!
अगर पता है तो कैसे उसको है ये गवारा!
तुम्हारी इस ज़िन्दगी में है क्यूँ इतना अँधेरा?
काश मैं मिटा सकता तुम्हारे इस अँधेरे को,
कहीं से खींचकर ला सकता नये सवेरे को,
तो जरूर किसी भी क़ीमत पर मैं ला देता,
पर हूँ मजबूर मैं, इस पर कहाँ है बस मेरा!
तुम्हारी ज़िन्दगी में छाया क्यूँ है इतना अन्धेरा!!
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कविता / 14/11/2022
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