संकल्प, धर्म और स्वतंत्रता
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क्या मनुष्य स्वतंत्र है? क्या मनुष्य और जिस समाज से मनुष्य का संबंध है वह समाज एक दूसरे से भिन्न और स्वतंत्र दो भिन्न वस्तुएँ हैं? व्यावहारिक सत्य की दृष्टि से कोई मनुष्य समाज के अभाव में भी जीवन बिता सकता है, किन्तु समाज चूँकि ऐसे ही कुछ मनुष्यों का समूह होता है, इसलिए मनुष्य के अभाव में ऐसे किसी समाज के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती । समाज और मनुष्यों के बीच की व्यवस्था और उन दोनों के बीच का संबंध ही सामाजिक धर्म है। यह व्यवस्था जितनी सरल और जितनी अधिक सुचारु होगी, व्यक्ति और समाज के बीच उतना ही अधिक सामञ्जस्य होगा। किन्तु फिर भी मनुष्य के वैयक्तिक और सामूहिक आवश्यकताओं और हितों के बीच कुछ न कुछ नीतिगत मतभेद तो होंगे ही। राजनीतिक धर्म, -वह व्यवस्था है, जो कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के आधार पर इन नीतिगत मतभेदों को यथासंभव कम किए जाने का प्रयास करे। जिसमें सभी का और प्रत्येक मनुष्य का ही अधिकतम हित संभव हो। इस राजनीतिक धर्म का आधार पुनः समाज के कुछ शक्तिशाली लोग तय कर सकते हैं और यह पुनः उन लोगों की महत्वाकांक्षा और मनुष्यमात्र के सार्वजनिक हित की कल्पना से प्रेरित उनका दृष्टिकोण हो सकता है। ऐसी शक्ति भी उनके विवेक से प्रेरित नीति, या फिर उनके विश्वासों, मान्यताओं, पूर्वाग्रहों, और स्वार्थ-बुद्धि आदि से उत्पन्न उनका हठ भी हो सकता है। पूरे मनुष्य के संदर्भ में कहें तो जब तक ऐसा कोई आधार नहीं प्राप्त हो जाता जिसके सहारे सामाजिक और राजनीतिक रूप से प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त का पालन सुनिश्चित किया जा सके तब तक स्वतंत्रता अपूर्ण ही रहेगी और व्यक्ति तथा समाज के बीच का संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। प्राकृतिक न्याय वह न्याय है, जो प्राकृतिक रूप से मनुष्य और समाज में विद्यमान होता है, और मनुष्य और उसके समूह के आचरण और तौर तरीकों को तय करता है। इसे प्राकृतिक धर्म या न्याय भी कहा जा सकता है।समूह या सामाजिक रूप से यह धर्म या न्याय भी पुनः शक्ति से परिचालित और नियंत्रित हो सकता है, या / और यह शक्ति भी पुनः किन्हीं उच्चतर आदर्शों और ध्येयों से निर्देशित हो सकती है। संक्षेप में इस आदर्श और ध्येय को :
"सभी सुखी हों और कोई भी दुःख का भागी न हो",
इन शब्दों में सूत्रबद्ध किया जा सकता है।
संसार में परंपरागत धर्म मुख्यतः दो प्रकार के हैं, एक है उपरोक्त सूक्ति से प्रेरित सनातन धर्म, दूसरा है राजनीतिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित सामूहिक आचरण के सूचीबद्ध नियमों पर आधारित वे धर्म जो उनका पालन यंत्रवत किए जाने की अपेक्षा समाज से करते हैं। ऐसे धर्मोंं के बीच परस्पर कलह और विसंगतियाँ और मतभेद न हों तो यह एक आश्चर्य की ही बात होगी। सिद्धान्ततः वे किसी एक ही मत के अनुयायी हों तो भी व्यवहारिक रूप से उनके बीच मतभेद होंगे ही और इतिहास भी इसका प्रमाण है।
इस प्रकार वास्तविक धर्म वही है जिसे कि अर्थ और आशय की दृष्टि से भी चिरन्तन, शाश्वत और सनातन कहा जा सके। इसी का आविष्कार और संग्रह वेद और वैदिक धर्म है। यह धर्म इस अर्थ में प्राकृतिक भी है कि यह मनुष्य को उसके अपने अपने गुणों और कर्मों के आधार पर उनके अनुसार उन्हें चार वर्णों में वर्गीकृत करता है। यहाँ यह कहा जाना भी आवश्यक है कि यह वर्ण व्यवस्था मनुष्यों के वंश या कुल नहीं, बल्कि उन गुणों और कर्मों के आधार पर उन्हें चार प्रधान वर्णों में वर्गीकृत करती है। इसी व्यवस्था का एक उतना ही महत्वपूर्ण पक्ष और भी है, जो है, -प्रकृतिप्रदत्त आश्रम-व्यवस्था, जो कि न केवल मनुष्यों ही, बल्कि प्रायः सभी प्राणियों के लिए भी प्रकृति से ही निर्धारित उनकी जीवन-शैली ही है।
यदि धर्म को इस आधार पर वर्गीकृत किया जाए तो यह प्रतीत होगा कि अब्राहमिक धर्मों को प्रगतिशील और उन्नतिशील धर्म कहा जा सकता है क्योंकि अभी उसमें टकराहट और अनिश्चय विद्यमान है। अभी उनके परिपक्व और विकसित तथा उन्नत होने की संभावनाएँ हैं, और जब तक उनमें अपरिपक्वता और अनिश्चय विद्यमान हैं, तब तक समय की माँग है कि वे स्वयं ही अपने आपको विकसित और परिमार्जित कर सुधार लें, और अपने यथार्थ स्वरूप को सुनिश्चित कर लें । जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक मनुष्य और मनुष्यों के समुदायों के बीच सतत संघर्ष होते रहना स्वाभाविक और अवश्यंभावी भी है ही। और इसीलिए तो उनके बीच अपने वर्चस्व को स्थापित करने का सतत अनवरत प्रयास भी लगातार निरंतर ही चल भी रहा है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता है।
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