क्या जीवन एक तपस्या है!
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यह इस पर निर्भर करता है, कि जीवन के प्रति हमारी क्या दृष्टि है। 'जीवन' शब्द को अनेक सन्दर्भों में, अनेक और भिन्न भिन्न अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है, और न तो यह संभव है, न जरूरी है, कि सभी की इस बारे में एक जैसी दृष्टि हो। 'जीवन' शब्द के साथ मेरा, हमारा, तुम्हारा, सबका, आदि विशेषणों के सन्दर्भ में देखते ही इसे अनेक और अत्यन्त भिन्न और विचित्र रूपों में समझ लिया जाता है। तब हम सोचने लगते हैं कि क्या पेड़-पौधों, घास में जीवन होता है या नहीं! और, क्या पशुओं में भी जीवन होता होगा? 'जीवन' का समानार्थी शब्द 'आत्मा' भी हो सकता है। तब यह समझ लिया जाता है, कि जिसमें 'आत्मा' है, उसमें ही जीवन है, और जिसमें आत्मा नहीं है, उसमें जीवन नहीं होता। इसलिए पशु-पक्षियों, वनस्पति, वृक्ष आदि में जीवन या 'आत्मा' नहीं होती। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि तब कभी कभी स्त्री को भी ऐसी ही वस्तु मान लिया जाता है, जो पुरुष के लिए उपभोग और संतान उत्पन्न करने का एक साधन भर होती है। इस प्रकार से 'जीवन' को परिभाषित कर लेने के बाद, बस अपने आपको ही, अपने शरीर को ही 'जीवन' मान लिया जाता है, और इसे बनाए रखना ही एकमात्र आवश्यक कर्तव्य होता है, जिससे अनंत काल तक हमेशा और निरंतर ही संसार के सुखों को प्राप्त करते रहा जा सके। किन्तु मूढ से मूढ भी यह समझ सकता है, और यदि न भी समझना चाहे तो 'जीवन' उसे समझा ही देता है, कि किसी न किसी दिन इस शरीर का नष्ट हो जाना ऐसा एक सत्य है, जिसका सामना, एक न एक दिन हर किसी को करना ही होता है। यह भी देखा जाता है कि शरीर का अन्त निकट होने पर भी, अन्त हो जाने की संभावना प्रत्यक्षतः स्पष्ट हो जाने पर भी, कोई उम्मीद, यह आशा तो बनी ही रहती है कि 'जीवन' अर्थात् यह शरीर जीवित ही रहे। जो मर जाता है, उसे क्या अनुभव होता होगा, यह तो उसे ही पता होता होगा, लेकिन उसे मरता हुआ देखनेवाले, -इस बारे में अपने अपने अनुमानों, कल्पनाओं, धारणाओं के अनुसार ही उसके बारे में सोचने लगते हैं। कभी किसी का ध्यान इस सच्चाई पर नहीं जा पाता है, कि मरनेवाला, और उसके बारे में हमारी यह धारणा कि वह कोई जीवित है, केवल हमारी स्मृति के होने से और स्मृति होने तक ही सत्य प्रतीत होते हैं। और यह स्मृति भी कितनी भंगुर, आधी अधूरी, सतत बनती, टूटती और बदलती रहनेवाली वस्तु होती है! उसके बारे में सोचते हुए हम कभी यह नहीं देखते हैं कि यह 'सोचना' क्या है? क्या किसी भाषा के न होने पर जिसे 'सोचना' कहते हैं, क्या वह "सोचा जाना" संभव है भी? भाषा क्या है? क्या यह किसी वस्तु के लिए प्रयुक्त किया जानेवाला कोई शब्द और ऐसे अनेक शब्दों का एक समूह ही नहीं होता है, जिससे विशिष्ट भावना या भाव जाग्रत होता है और जो किसी समूह में सर्वमान्य होता है? भावना या भाव भी क्या हर क्षण ही आते और जाते ही नहीं रहते? फिर "मैं", -जो मेरा "जीवन" है, यह क्या है? क्योंकि "मैं" और "मेरा" के बिना कहीं कोई 'जीवन' नहीं हो सकता, और न ही 'जीवन' की अनुपस्थिति या अभाव में कोई "मैं" या "मेरा" कहीं हो सकता है! किन्तु क्या कभी न कभी हर किसी को ऐसा भी नहीं लगता, कि 'जीवन' में ऐसे भी पल आते हैं, जब "मैं" और / या "मेरा" तो नहीं होता है, लेकिन 'जीवन' अवश्य ही होता है! जब हम आश्चर्य-चकित होते हैं, जब मन मौन हो जाता है, किसी सुखद, दुःखद या शोक या हर्ष की स्थिति में, अचानक ही 'जीवन' तो होता है, लेकिन उसे "मैं" या "मेरा" कहना संभव ही नहीं होता, जब आप बस मुग्ध या मंत्र-मुग्ध होते हैं, जब आप अचानक किसी अप्रत्याशित संकट में होते हैं, या ख़तरे से घिर जाते हैं! उस पल के बीत जाने के बाद ही "मैं" और "मेरा" भी पलक झपकते लौट आते हैं, और उस पल की स्मृति को सहेज लिया जाता है। उसी स्मृति के सहारे से "मैं" और "मेरा" जीवित हो उठते हैं, और "मैं" और "मेरा" से जुड़ी वह स्मृति भी लौट आती है। फिर "मैं" और "मेरा" ऐसी ही असंख्य स्मृतियों की श्रंखलाओं में अपने आपको जकड़ लेते हैं। क्या यही 'जीवन' है?
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