।। द्वितीयाद्वै भयम् ।।
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डर क्या है?
योगदर्शन के अनुसार डर / भय भी अन्य वृत्तियों की तरह की ही एक वृत्ति ही है। और समस्त वृत्तियाँ जिस चेतना / मन में आती और जाती हैं, उन्हें जो जानता भी है, वह उनसे नितान्त अछूता दृष्टा मात्र है।
दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।
(पातञ्जल योग-सूत्र, समाधिपाद)
इस तरह वृत्तियाँ, -प्रत्यय का ही पर्याय हैं।
चेतन मन, जो जाग्रति, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं से गुजरता रहता है, या यह कहें कि मन की ये तीनों अवस्थाएँ जो कि चेतन मन अर्थात् चेतना से गुजरती रहती हैं, यह स्वरूपतः वैसे तो दृष्टा या दर्शनमात्र है, उसमें एक विशिष्ट आधारभूत वृत्ति सदैव विद्यमान होती है, जिसे अहंकार या अहंवृत्ति कहते हैं। अहंकार की अपनी कोई वैसी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती, जैसी कि भय, हर्ष, शोक, क्रोध, काम, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि भिन्न भिन्न वृत्तियों की होती है। इसी प्रकार से चिन्ता, विश्वास, संदेह आदि भी वृत्तिमात्र ही हैं, जबकि अहंकार या अहंवृत्ति किन्हीं भी दो वृत्तियों के बीच आभासी अस्तित्व ग्रहण करती है। इसीलिए तो हम कह पाते हैं :
"पहले मैं चिन्तित था, अब मेरी चिन्ता दूर हो गई है, इसलिए मैं प्रसन्न हूँ।"
इस प्रकार दो मानसिक स्थितियों के बीच अहंकार अपने रूप में प्रकट होता, और पुनः पुनः विलुप्त होता रहता है।
यह अहंकार या अहंवृत्ति यद्यपि मन में उत्पन्न एक तात्कालिक प्रतिक्रिया, विचार होता है, किन्तु क्षण क्षण उत्पन्न और विलीन होते रहने-वाला यह विचार दो वृत्तियों के बीच आधार ले लेता है और फिर स्वयं को सभी वृत्तियों का स्वामी मान बैठता है। इस प्रकार स्वतंत्र अस्तित्वमान प्रतीत होनेवाला विचार / अहंकार ही कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी के रूप में दृष्टा के विकल्प की तरह व्यक्ति-विशेष का रूप धारण कर लेता है, जिसे "मैं" समझा जाता है।
चूँकि यह व्यक्ति, अर्थात् अहंकार सतत ही उत्पन्न और विलीन होता रहता है, इसलिए अपने-आपको व्यक्ति माननेवाला यह अहंकार सदैव मिटने की आशंका से ग्रस्त भी रहा करता है। इस मूल भय को अभिनिवेश कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शरीर के नष्ट हो जाने की कल्पना, संभावना और यह आशंका ही "मैं मर जाऊँगा" के रूप में सत्य प्रतीत होने पर मनुष्य भय से ग्रस्त हो जाता है।
विवेक और सामान्य तर्कबुद्धि से देखें तो भी स्पष्ट होगा कि यह विचार जो अभी ही उठा, अनायास ही उठता है, और चाहते या न चाहते हुए भी विलीन भी हो जाता है। तब कोई दूसरा विचार उसका स्थान ले लेता है। इस सम्पूर्ण विचार श्रँखला को देखने या जाननेवाला इसकी पृष्ठभूमि में अवस्थित दृष्टा न तो किसी भी विचार से प्रभावित होता है, न किसी विचार को प्रभावित ही करता या कर सकता है। सभी विचारों का आगमन परिस्थितियों और स्मृति से ही होता है। चेतन मन जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की दशा के अनुसार ही उसके समक्ष उपस्थित प्रसंग को ग्रहण करता है।
जैसे जाग्रत दशा में विचारों का क्रम अलगअलग समय पर हममें भिन्न भिन्न भावनाएँ जाग्रत करता है, वैसे ही जाग्रत दशा से स्वप्न की दशा, पुनः स्वप्न से स्वप्नरहित सुषुप्ति की दशा, उस दशा से लौट कर स्वप्न दशा, तथा फिर से स्वप्न की उस दशा से जाग्रत आदि दशाओं का क्रम से आना और जाना, उनके बीच अपने आपके कल्पित व्यक्ति-विशेष होने के विचार / स्मृति के जन्म का कारण होता है।
यद्यपि भय केवल कल्पना है, कल्पना के सिवा कुछ नहीं, फिर भी अपने आपके एक व्यक्ति विशेष होने की स्मृति ही भय का एकमात्र कारण है।
इसलिए यद्यपि भय अनेक हो सकते हैं, किन्तु जिसे भय लगता है वह निर्विवाद रूप से एकमेव / स्वयं ही होता है। और सभी भय निरपवादतः इस एक के ही सन्दर्भ में होते हैं।
सभी भय दूसरे या द्वितीय होते हैं - अर्थात् अपने स्वयं से अन्य;
इसलिए जब तक संसार और मैं एक दूसरे से अलग जान पड़ते हैं, तब तक भय दूर कैसे हो सकता है!
और इसीलिए :
"द्वितीयाद्वै भयम्"
की उक्ति पूर्णतः सुसंगत और सत्य है।
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