अष्टावक्र, श्वेतकेतु और कहोळ
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कहोळ वेदज्ञ और वैदिक विधि-विधान में पारंगत और निष्णात थे। वे राजा जनक के पुरोहितों में से एक प्रमुख पुरोहित थे।
उनकी पत्नी का नाम था सुजाता, और सुजाता से उत्पन्न उनके पुत्र का नाम था अष्टावक्र । यह कथा तो विख्यात ही है कि जब अष्टावक्र अभी माता के गर्भ में ही थे, और उनके पिता कहोळ नित्य-प्रति किया जानेवाला वेदपाठ कर रहे थे तब पाठ करते समय कुछ मन्त्रों के उच्चारण में त्रुटि कर बैठे।
अष्टावक्र का ध्यान उस समय उन मन्त्रों को सुनते हुए जब उन त्रुटियों पर गया, तो वे वहीं से बोल उठे :
"पिताजी! वेदमन्त्रों के उच्चारण में त्रुटि अनिष्टसूचक है। आप ऐसी त्रुटि न करें।"
पुत्र के वचन सुनकर कहोळ क्रोधित हो उठे, और उन्होंने माता के गर्भ में स्थित अपने अजन्मे पुत्र को शाप दे दिया, जिसके प्रभाव से जन्म के समय से ही उसके शरीर के आठ अंग टेढ़े हो गए अर्थात् वक्र हो गए। इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र हो गया। अष्टावक्र की माता सुजाता के भाई का नाम श्वेतकेतु था। उनके पिता विद्या ग्रहण करने के लिए उन्हें लेकर जब गुरुकुल गए तब उनके आचार्य ने उन्हें आश्रम की गौओं की देखभाल और सेवा करने की आज्ञा दी। श्वेतकेतु पूरी निष्ठा से इस कार्य में संलग्न हो गए और युवा होने तक उनका मन, बुद्धि आदि इतने शुद्ध हो चुके थे कि वे ब्रह्मविद्या के पात्र हो गए।
यह है गौसेवा का फल।
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