February 26, 2021

जयदेव

गीतगोविन्द

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रात्रि में १०:१५ बजे सो गया था।

उसके पहले श्री नारायण अथर्वशीर्ष का पाठ किया था।

अभी घंटे भर पहले नींद से जागा और नींद नहीं आ रही थी, तो कमरे में चहलकदमी करता रहा। दस मिनट तक चहलकदमी करने के बाद बिस्तर पर लेटे लेटे मोबाइल पर कुछ समाचार आदि देखता रहा। एक शॉकिङ्ग समाचार यह पढ़ा कि केरल की एक स्त्री ने आत्महत्या के विचार से आइसक्रीम में रैट पॉइज़न मिलाकर खाना चाहा, और फिर उसका विचार बदल गया तो उसने आइसक्रीम को वैसे ही बिना खाए, छोड़ दिया ।

वह सो गई । उसके पाँच साल की आयु के बेटे और उस स्त्री  की बहन ने बाद में उसी आइसक्रीम को खाया और दोनों की बाद में मृत्यु हो गई।

इसे पढ़ने के बाद मन उचट गया और अपने "मनोयान" ब्लॉग की पुरानी पोस्ट्स देखने लगा। 

जयदेव की एक अष्टपदी :

"धीर समीरे... "

पर दृष्टि गई। 

संस्कृत साहित्य में श्रङ्गार रस की शैली में भक्ति रस, और भक्ति रस की शैली में श्रङ्गार रस का मेल एक अद्भुत् भाव उत्पन्न करता है, जिसे ग्रहण करने के लिए मनुष्य का शुद्ध हृदय होना आवश्यक है। श्रङ्गार रस भी भक्ति से हृदय को शुद्ध कर सकता है, और केवल शुद्ध हृदय ही भक्ति के अनुग्रह का पात्र होता है। 

फिर गूगल के सर्च में इस अष्टपदी के टेक्स्ट को ढूँढा तो एक कथा पढ़ने को मिली, जिसमें उस स्त्री का वर्णन है, जो इस पद को गाते हुए अपने खेत में बैंगन तोड़ती हुई गुनगना रही थी ।

उसकी भावविभोर वाणी से वातावरण में एक अलौकिकता व्याप्त हो रही थी। कथा कहती है कि तभी उसे पीले वस्त्र पहने हुए एक बालक के दर्शन हुए जो वंशी बजा रहा था।  उसके चमकीले नेत्रों को देखकर और वंशी के स्वरों से मोहित वह स्त्री भावसमाधि में डूब गई। 

दूसरे दिन जब भगवान कुञ्जबिहारी के मंदिर के पुजारी ने मंदिर के पट खोले तो वह यह नहीं समझ सका, कि भगवान का पीत-उत्तरीय द्वार के पास तक कैसे पहुँच गया!  उसने जब उसे उठाया तो उसे यह देखकर तब और भी अधिक आश्चर्य हुआ जब उसने देखा कि उस पर बैंगन के पत्ते और कुछ काँटे भी लिपट, फँसे हुए थे। 

संशयवादी इस कथा पर संदेह करेंगे, और जिन्होंने जीवन में ऐसा कोई अनुभव पाया है, वे इसे परमात्मा की लीला कहेंगे। 

मुझे ऐसा ही एक अनुभव उस भावदशा का बचपन में तब हुआ था, जब मैं ६-७ साल की उम्र का था। 

मेरे पिताजी जिस स्कूल में शिक्षक थे, उसके प्रधानाचार्य के घर पर एक दिन सूर्योदय से पहले कोई पूजा की जा रही थी। उनकी पत्नी को मैं मौसी कहता था। उनकी दो बेटियाँ और एक बेटा था। 

पूजा की सामग्री चाँदी की थाली में रखी थी, और प्रसाद के रूप में आटे की गुड़ में बनी पँजीरी थी। वह सारा आयोजन बहुत घरेलू सा था, लेकिन सुबह सुबह, सूरज उगने से बहुत पहले उठकर नहाकर वहाँ पहुँचने, और उसमें शामिल होने का अनुभव इतना रोमाञ्चक और अविस्मरणीय था, कि मैं उसे अलौकिक ही कह सकता हूँ। 

सुबह होने से पहले ही हम घर लौट गए थे, और मैं फिर सो गया था। 

उस उम्र में न तो मुझे भक्ति और न श्रङ्गार के बारे में कोई ज्ञान या अनुभव था, न अध्यात्म या धर्म आदि का। 

अब सोचता हूँ कि श्रङ्गार और भक्ति की पवित्रता हमारे जीवन से क्यों, कब और कैसे विलुप्त हो गई? 

केरल की उस स्त्री के दुर्भाग्य पर ध्यान जाता है तो यह प्रश्न और अधिक कचोटता है। 

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