February 21, 2021

राम तेरे कितने नाम?

वन में स्थित उस पर्णकुटी में भगवान् श्रीराम स्फटिक-शिला पर विराजमान थे और माता सीता उनकी दृष्टि से परे कहीं बाहर पुष्प-पत्र चुनने के लिए गई हुईं थीं। वे पुष्प-पत्र लेकर लौटीं तो उन्होंने भगवान् श्रीराम के चरणों पर अँजुलि-भर पुष्प अर्पित कर दिए। 

भगवान् के अनुज श्री लक्ष्मण, शिला से कुछ दूर भगवान् की आज्ञा की प्रतीक्षा में तत्पर, स्तंभवत् खड़े थे। माता सीता के वहाँ से चले जाने पर उन्होंने भगवान् से निवेदन किया :

"प्रभु! एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ,  कृपया अनुमति प्रदान करें।"

भगवान् ने कृपापूर्वक मन्दस्मित से संकेत से ही अनुमति प्रदान की,  फिर प्रकटतः कहा  :

" अवश्य! "

तब श्री लक्ष्मण ने प्रश्न पूछा :

"लोक में आपकी ख्याति 'राम' के नाम से है, किन्तु ऋषि-मुनि,  वेद-पुराण आदि आपके असंख्य नामों का उल्लेख करते हैं। कृपया बतलाएँ कि आपका एक ही नाम है या कि अनेक नाम हैं? और यदि आपके एक से अधिक नाम हैं तो उनमें से सबसे बड़ा नाम कौन सा है?"

"प्रिय लक्ष्मण ! मेरे समस्त नाम मेरे लक्षण मात्र हैं,  और इसलिए तुम्हारा लौकिक 'लक्ष्मण' नाम भी  वस्तुतः मेरा ही एक नाम है। किसी नाम का प्रयोग अर्थ और प्रयोजन की तरह व्यावहारिक रूप से भिन्न भिन्न स्थितियों में आवश्यकता के अनुसार अलग अलग प्रकार से किया जाता है। किसी वस्तु से अनभिज्ञ मनुष्य भी केवल कल्पना या भावना मात्र से भी उसे संबोधित या व्यक्त करता है अर्थात् दूसरों के समक्ष उस नाम से प्रकट करता है। इसलिए वही नहीं, मेरे स्वरूप को जाननेवाले ज्ञानीजन भी इस विषय में प्रायः दुविधा अनुभव करते हैं, किन्तु मेरी शक्ति ही जो प्राणिमात्र में आवरण, विक्षेप तथा अनुग्रह की तरह कार्य करते हुए सभी को जगद्वयापार में संलग्न करती है, और जो मुझसे लोक अर्थात् जगत् की ही तरह अभिन्न है, अपनी अहैतुक कृपा से उन्हें निरन्तर मेरी ओर आकर्षित करती है। जैसे मेरे असंख्य नाम और लक्षण हैं, उसी प्रकार वह शक्ति भी मेरा ही स्वरूप और लक्षण भी है। जैसे जगत् मेरा कोई विशिष्ट नाम न होते हुए भी मेरा ही लक्षण मात्र है, जिसके आधारभूत सत्य को जानकर, उसकी जिज्ञासा के लिए उत्कंठित मनुष्य उसके नित्यतारूपी प्रकट लक्षण को स्मरण रखते हुए मुझे प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार किसी भी नाम से मुझे स्मरण करनेवाला और मुझे इंगित कर मेरी आराधना करनेवाला अपनी बुद्धि के अनुसार मुझे स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से यत्किञ्चित जान सकता है, क्योंकि मेरे यथार्थ स्वरूप को जान पाना और उसका वर्णन कर पाने में तो वेद तथा शास्त्र आदि भी असमर्थ हैं।

इसलिए विभिन्न मेरे नाम भी अर्थ और प्रयोजन के अनुसार अलग अलग हैं। 

जैसे किसी व्यक्ति को प्रत्यक्षतः संबोधित करने के लिए उसे 'तुम' कहा जाता है वैसे ही उसके बारे में किसी से कुछ कहने के लिए अप्रत्यक्षतः 'वह' नाम दिया जाता है - ये दोनों 'मैं' की तरह ही सर्वनाम कहे जाते हैं। किन्तु वस्तुतः वे सभी 'मैं' के ही प्रकाश में प्रकट और विलीन होते हैं,  जबकि 'मैं' न तो प्रकट होता है और न विलीन, उसी प्रकार 'मैं' अर्थात् 'अहं', या आत्मा ही मेरा प्रथम नाम है। अन्य सभी सर्वनाम मेरे इंगित मात्र हैं। 

तुमने मुझे 'प्रभु' कहकर संबोधित किया जिसका अपना अर्थ और प्रयोजन है किन्तु वह नाम भी उसी प्रकार सीमित और अपूर्ण है, जैसे अन्य सभी नाम (संज्ञाएँ) और सर्वनाम। 

किसी भी नाम का प्रयोग स्मरण या उल्लेख तथा संबोधन और संकेत के लिए किया जाता है। 

वेद इसी ज्ञान का विस्तार है। 

स्मरण,  उल्लेख तथा संबोधन भी  किसी कल्पना, भावना या भौतिक वस्तु के ही संबंध में किया जाता है । कल्पना (भावना),  या भौतिक वस्तु क्रमशः आधिदैविक और अधिभौतिक  तत्व अर्थात् मायारूपी शक्ति के कार्य हैं जबकि आध्यात्मिक तत्व अर्थात् 'अहं' या 'मैं' जिससे उत्पन्न स्फुरण ही व्यक्तिमात्र में पाया जानेवाला अहंकार होता है, जो अन्तःकरण की तरह एक ही 'अहं' के असंख्य रूपों में जगत् तथा व्यक्ति का अपना कल्पित वह संसार होता है जिसे वह अपने से भिन्न मान लेता है।

'अहं' अर्थात् 'मैं' स्वरूपतः मेरा ही नाम है। 

मायाशक्ति के कार्य जगत् और जगदानुभव के रूप में व्यक्त होने से परिणाम की तरह निरन्तर ही अव्यक्त से प्रकट होकर पुनः अव्यक्त में समाहित हो जाते हैं। उनकी नित्यता या अनित्यता का विचार भी नहीं किया जा सकता क्योंकि नित्यता और अनित्यता जिस 'काल' के अन्तर्गत होते हैं वह काल भी व्यवहारतः तो विचारमात्र और अचल अटल अनादि अनंत आधार के रूप में मैं ही हूँ। विचार तो मायाशक्ति का विलास है,  जबकि मैं ही उस शक्ति का स्वामी हूँ।

जगत् रूपी कार्य मायाशक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है, किन्तु जगत् का उद्भव, स्थिति तथा लय जिन कारणों से होता है वे कारण मायाशक्ति का ही अव्यक्त गुणमय प्रकार है। 

इस प्रकार 'मैं' अर्थात् 'अहं' नाम भी यद्यपि मुझ परमात्मा का ही है किन्तु उस नाम का प्रयोग केवल स्मरण के लिए ही किया जाता है। व्यवहार में उससे जिसका संकेत किया जाता है वह व्यक्ति विशेष द्वारा अपने आप के संदर्भ में होता है इसलिए वह मेरा (मुझ परमात्मा का) नाम नहीं हो सकता। 

किन्तु फिर भी,  यह भी सत्य है कि ज्ञानी या अज्ञानी या संशयात्मा पुरुषों में भी मैं नित्य इसी अहं-स्फुरण की तरह प्रत्यक्ष होता हूँ, और इसीलिए कोई अपने आपके अस्तित्व से न तो अनभिज्ञ होता है, न किसी को अपने होने पर संशय होता / हो सकता है। 

इसलिए 'अहं' नाम सच्चिदानन्द एकमेवऽद्वितीय परमात्मा का ही प्रथम लौकिक नाम भी है। 

(बृहदारण्यक उपनिषद् में इसे ही :

'अहं नामाभवत्' 

के माध्यम से कहा है।)

'अध्यात्म रामायण' में मेरा, तुम्हारा और हम चारों भाइयों का उल्लेख इस प्रकार से है :

'यस्मिन् रमन्ते मुनयो विद्ययाऽज्ञानविप्लवे ।

तं गुरु प्राह रामेति रमणाद्राम इत्यादि।। ४०

भरणाद्भरतो नाम लक्ष्मणं लक्षणान्वितम्। 

शत्रुघ्नं शत्रुहन्तारमेव गुरुरभाषत।। ४१

लक्ष्मणो रामचन्द्रेण शत्रुघ्नो भरतेन च। 

द्वंद्वीभूय चरन्तौ तौ पायसांशानुसारतः।। ४२

इस प्रकार मेरा 'अहं' नाम सर्वत्र प्रचलित और प्रकाशित है, जिससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है, किन्तु संसार के उद्धार तथा धर्म की संस्थापना के कार्य हेतु लीलामात्र से मैं जिस रूप में धरा पर अवतरित होता हूँ उस सर्वनियन्ता के रूप में मुझ परमात्मा का नाम 'राम' ही है जिसे स्मरण करते ही कोई भी मनुष्य तत्काल ही मेरी कृपा का भागी हो जाता है। 

मेरा तीसरा नाम जिसे इंगित और उल्लेख की दृष्टि से प्रयोग किया जाता है वह है 'ॐ' अर्थात् प्रणव। 

इंगित, उल्लेख तथा वर्णन की दृष्टि से यह उन भक्तों,  ज्ञानियों और योगियों को भी अत्यन्त प्रिय है जो मुझे अपरोक्षतः इस नाम से स्मरण करते हैं क्योंकि वे :

'देवाऽपरोक्षप्रियाः'

के रहस्य से परिचित होते हैं। 

ये सभी जो मुझे 'राम', 'ॐ' या मेरे किसी ऐसे ही नाम से स्मरण करते हैं, मेरी कृपा के पात्र होते हैं। 

नाम ही मुझे स्मरण करने के लिए सर्वसुलभ साधन है, क्योंकि मेरे स्वरूप का वर्णन कर पाने में तो स्वयं ब्रह्मा या सरस्वती भी उनके समर्थ नहीं हैं ।"

--

राम 






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