May 26, 2019

'ल्यूटेंस' और अंतिम अरण्य

मैरी ल्यूटेंस वह पहली महिला थी जिसका नाम मैंने वर्ष 1982 के बाद कभी पहली बार पढ़ा था।  यद्यपि यह भी सत्य है कि 'ल्यूटेंस' की दिल्ली के बारे में सबसे पहले मैंने निर्मल वर्मा की कहानियों और उपन्यास में इससे भी पहले बहुत बार पढ़ा था।
निर्मल वर्मा से मेरा लगाव उतना ही गहरा और किसी हद तक भावुकता भरा रहा है जितना कि श्री रमण-महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति, श्री निसर्गदत्त महाराज और श्री मॉरिस फ्रीडमन से था और आज भी है।
शायद 1984-1985 में पहली बार मैंने मैरी ल्यूटेंस द्वारा लिखी गयी श्री जे. कृष्णमूर्ति की जीवनी के दोनों भागों को पढ़ा था।  इससे पहले ही निर्मल वर्मा के साहित्य से मेरा लगाव बहुत गहरा हो चुका था।
एक चिथड़ा सुख, कौए और काला पानी, एक दिन का मेहमान, वे दिन, आदि अविस्मरणीय हैं, और आज भी मैं उन्हें इतना ही डूबकर पढ़ सकता हूँ जितना पहले कभी आश्चर्यचकित होकर रोमांच में डूबकर पढ़ा करता था।
उनकी अंतिम पुस्तक 'अंतिम अरण्य' को मैंने तीन बार पढ़ा, जबकि दूसरी किताबों / कहानियों को पचीसों बार। 'अंतिम अरण्य' को आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सन्दर्भ में भी बेहतर ढंग से रखा जा सकता है, जहाँ हर कोई उस निर्जन में अपनी ही आहटों के यूटोपिया में भटकता हुआ अंततः स्मृति से परे खो जाता है।
निर्मल वर्मा का साहित्य इस दृष्टि से बेजोड़ है कि वह यूरोपीय और अमेरिकन साहित्य की शैली में होने पर भी मनुष्य के मन की परतों को भारतीय दर्शन के आधार पर खोलकर हमारे सामने रख देता है। 
वह केवल रोमांच और फिक्शन न होकर पाठक को उसके उस अंतर्जगत में ले जाता है जहाँ से वह उस यथार्थ में छलाँग लगा सकता है जिसके बारे में मैंने श्री रमण-महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति, श्री निसर्गदत्त महाराज की शिक्षाओं से जानने समझने का प्रयास किया।  इस प्रकार निर्मल वर्मा के साहित्य वस्तुतः शाश्वत साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।
निर्मल वर्मा के साहित्य में अनायास दर्शन (न कि दर्शन-शास्त्र) के वे वन-लाइनर मन को बाँध लेते हैं जिनके बारे में हमेशा और बार बार चिंतन किया जा सकता है।  यहाँ तक कि वे आपको जीवन में हर समय याद आने लगते हैं और धीरे-धीरे आपको उस स्थिति तक ले जाते हैं जहाँ से गीता के तत्व को अनायास ही समझ लिया जाता है। वे कोई उपदेश नहीं देते बस अनायास आपको कहीं बहुत गहरे छूकर पल भर के लिए 'वहाँ' ले जाते हैं जहाँ से आप लौटकर इस संसार में नहीं आ सकते।  आप यहाँ होते हुए भी कहीं और होते हैं, और वह 'कहीं और' कोई यूटोपिया या मीटूपिया नहीं होता।   
दिल्ली से होकर मैं जीवन में बहुत बार गुज़रा हूँ लेकिन सिर्फ एक बार एक रात के लिए (जब मैं बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र के प्रोबेशनरी ऑफिसर के लिए इंटरव्यू देने गया था) रुका था, और एक बार दो तीन दिनों के लिए नैनीताल से लौटते समय।
वैसे उत्तराखंड हरिद्वार, ऋषिकेश, उत्तरकाशी आदि जाते समय भी दिल्ली से गुज़रना बहुत बार हुआ है लेकिन वह दिल्ली जो एक शहर था / है, जहाँ 'था' को क्रॉस पर चढ़ा दिया गया है, उस दिल्ली के भीतर मैं कभी नहीं गया।
आज के परिप्रेक्ष्य में अर्नब गोस्वामी जैसे लोगों ने 'ल्यूटेंस की दिल्ली' को एक सर्वथा नया प्रभामंडल दिया है और उसके तमाम निहितार्थ, विहित और अविहित अर्थ दिए हैं तो निर्मल वर्मा की याद आती है जिन्होंने इसे 'लुटियन्स की दिल्ली' कहा था।
एमिली ल्यूटेंस (मैरी ल्यूटेंस की माता) का और एडवर्ड ल्यूटेंस  (जिन्होंने नई दिल्ली का वास्तुकल्प किया था) के इतिहास पर ध्यान जाता है।
श्री जे. कृष्णमूर्ति और मैरी ल्यूटेंस की मैत्री का कुछ अनुमान मैरी ल्यूटेंस की लिखी श्री जे. कृष्णमूर्ति की जीवनी से किया जा सकता है। थियोसॉफी और ऑर्डर ऑफ़ द स्टार के विसर्जन (dissolution) से  पहले और बाद के दो युगों में वैसा ही कुछ फ़र्क है जैसा कि ल्यूटेंस की तब की और आज की दिल्ली के बीच है।
पता नहीं कितने लोगों को लुटियंस की इन दिल्लियों के इतिहास के अदृश्य होकर छिपी कहानियों का पता है।
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