May 11, 2019

ईश्वर, अल्लाह, ख़ुदा, God !

प्रियं च नानृतं ब्रूयात् ।
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एक दिन बापू की प्रार्थना-सभा के बाद दूर से आये एक पंडित ने बापू से निवेदन किया :
"बापू ! व्यक्तिगत रूप से आपकी प्रार्थना पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किंतु जब आप सभा में भजन के रूप में इसे गाते हैं तो मेरे मन में एक प्रश्न उठता है । अनुमति हो तो पूछूँ?"
बापू ने सरल भाव से उसे इसकी अनुमति दी।
"कोई व्यक्तिगत-रूप से सोच सकता है कि ईश्वर और (अल्ला) अल्लाह, एक ही परमेश्वर के अलग-अलग दो नाम हैं किंतु क्या यह आवश्यक है कि दूसरे भी सभी ऐसा ही मानते हों?"
"आज तक किसी ने ऐसा प्रश्न मुझसे नहीं किया, इसलिए मैंने इस बारे में कभी विचार ही नहीं किया ।"
"बापू ! कल ही एक अन्य संप्रदाय के मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा कि वह इससे राज़ी नहीं है, क्योंकि उसके धर्मग्रन्थ के अनुसार यह सत्य नहीं है । जिसका नाम ईश्वर है वह अल्लाह नहीं, और जिसका नाम अल्लाह है वह ईश्वर नहीं ।
यह सुनकर बापू को उस पंडित की बात पर विश्वास नहीं हुआ । फिर भी उन्होंने पूछा :
"तुम्हें क्या लगता है?"
"बापू! यह सिर्फ़ आपका व्यक्तिगत विचार है कि ईश्वर और अल्लाह एक ही परम-सत्ता के दो भिन्न-भिन्न नाम हैं, और दूसरे कुछ लोग इस पर आपत्ति न उठाते हुए केवल इसलिए चुप रहते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि यदि आप ख़ुद ही इस ख़ुशफ़हमी का शिकार हैं कि दूसरे आपकी बात से राज़ी हैं तो यह आपकी समझ है । वे क्यों प्रश्न उठाएँगे; - क्योंकि उन्हें जो समझना है, उसे गुप्त रखने से ही आपका यह भ्रम और पुख़्ता होता है कि इस विचार से वे प्रसन्न हैं, जबकि वे जानते हैं कि भले ही यह आपकी ग़लतफ़हमी ही क्यों न हो, (उनकी दृष्टि से) आप सरासर झूठ बोल रहे हैं, ....!"
"क्यों ? क्या यह सच नहीं है?"
"यह आपकी दृष्टि में सच है, - ज़रूरी नहीं कि उनकी दृष्टि में भी यह सच हो !"
" ... ... "
"देखिए, यह सच ’वैचारिक सच’ है, जो अपनी अपनी मान्यता के अनुसार तय होता है । वास्तव में क्या यह ज़रूरी है कि उस परम-सत्ता को कोई नाम दिया ही जाए? क्या उसे नाम देते ही हमें यह नहीं कहना पड़ता कि सभी नाम उसके ही अलग अलग नाम हैं? और फिर हम ’ईश्वर-अल्ला' कहने लगते हैं । पहले तो आप उसके एक से अधिक कई नाम लेकर कहते हैं कि वे सब उसके ही नाम हैं और फिर यह ग़लतफ़हमी पैदा कर लेते हैं कि लोग सर्वधर्म-समभाव की आपकी भावना का आदर करते हैं और ऐसे शब्दों से वे ख़ुश होंगे, उनके बीच सौहार्द्र और भाई-चारा पनपेगा । जो है ही नहीं, उसके पनपने की संभावना ही क्या होगी?"
"तो क्या सर्वधर्म-समभाव के आदर्श को दफ़ना दिया जाए?"
-बापू उद्विग्न और व्याकुल होकर किञ्चित् रोषपूर्वक बोले ।
"जी नहीं उसे आप अपने दिल में अवश्य रखिए लेकिन सभा में ’ईश्वर-अल्ला तेरे नाम’ कहना ऐसा अनृत (असत्य)-भाषण करने के समान है, जिसे आप सिर्फ़ इस ग़लतफ़हमी से ग्रस्त होकर, यह मानकर चलते हुए कहते हैं कि इससे हर कोई संतुष्ट ही नहीं बहुत प्रसन्न और राज़ी भी होगा ही । जबकि यह ’प्रियं च नानृतं ब्रूयात्’ के न्याय-वाक्य / नीति-वाक्य के विपरीत भी है । सिर्फ़ इसलिए, कि वह लोगों को प्रिय है ऐसा असत्य भी मत बोलो । इस प्रकार आप न सिर्फ़ ख़ुद को बल्कि उन्हें भी धोखे में रखते हैं जो आपके वचनों को अंतिम सत्य की तरह श्रद्धापूर्वक स्वीकार करते हैं और उनके मन में इसकी कल्पना तक पैदा नहीं होती कि दूसरे कुछ लोग जो आपसे बिल्कुल भी राज़ी नहीं हैं, न सिर्फ़ औपचारिकता और सौजन्यतावश, शिष्टाचारवश और सभ्यता प्रदर्शित करते हुए भीतर ही भीतर निर्लज्जतापूर्वक आप पर हँसते हुए भी, ऊपर से मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए, चुप ही दिखाई देते हैं । क्या यह अधिक अच्छा नहीं होगा कि ऐसे वक्तव्यों का उल्लेख ही न किया जाए? जैसे किसी व्यक्ति / वस्तु के नाम से हम उस वस्तु के बारे में सुनिश्चित रूप से जान जाते हैं कि उसका क्या स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि है; - क्या 'ईश्वर' या 'अल्लाह' जैसे किसी 'नाम' से उस व्यक्ति / वस्तु के स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि के बारे में हमें ऐसा कोई ठोस, सुनिश्चित निष्कर्ष /प्रमाण प्राप्त होता है जिस पर सब सहमत हो सकें?"
बापू ने कोई उत्तर नहीं दिया।
उस पंडित के चले जाने के बाद बापू ने इस बारे में फिर शायद ही कभी सोचा हो।
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किसी सत्य (या असत्य) को यद्यपि विचार में ढाला जा सकता है, किंतु वैचारिक सत्य हमेशा अपूर्ण, आधा-अधूरा ही होता है क्योंकि इसकी व्याख्या हर कोई अपने तरीके से करता है । और यह भ्रम पैदा हो जाता है कि सभी उसका एक ही तात्पर्य ग्रहण करते हैं । जबकि असलियत में ऐसा प्रायः कभी नहीं होता ।
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वैसे तो यह कल्पना ही है लेकिन जब मैंने पढ़ा कि जिसे अंग्रेज़ी में ’गॉड’/ 'God' कहा जाता है, इस्लाम के कुछ अनुयायी नहीं मानते कि वह ’अल्लाह’ का ही नाम है, तो मुझे लगा, मैं ख़ुद भी अभी तक इस बारे में कितना भ्रमित था! और मुझे यह भी नहीं पता था कि मैं अब तक इस बारे में बहुत भ्रमित था ।
इसे कहते हैं :
’पता नहीं है’ -यह भी पता न होना !
और इसलिए इस कल्पित संवाद / घटनाक्रम को लिखने का मन हुआ !
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और इसे पोस्ट करने के दो मिनट बाद ही मुझे ख़याल आया कि 'हिन्दू', 'मुसलमान', 'भारतीय', 'चीनी', कांग्रेसी, कम्युनिस्ट आदि भी क्या ऐसे ही 'वैचारिक सच' / abstract notions नहीं हैं, जिनकी हर कोई अपने ढंग से व्याख्या तो कर सकता है लेकिन जिनका कोई ठोस स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि क्या है इसे ठीक ठीक कोई नहीं जानता और न ही समझा सकता है !
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