May 04, 2019

घूँघट / बुरक़ा,

घूँघट के पट खोल !
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बुद्धिजीवी और धर्म के नाम पर राजनीति करनेवाले किसी हठधर्मी के चलते किसी प्रश्न को समस्या और मुद्दा बना सकते हैं !
इसका उदाहरण तब देखने को मिला जब श्रीलंका में पिछले माह में ईस्टर पर हुए आत्मघाती हमलों में इस्लामी आतंकवादी संगठनों के द्वारा स्वीकार किया गया कि ये हमले उन्होंने करवाए थे। और, निकट भविष्य में ऐसे और भी हमले होने की आशंका सुरक्षा एजेंसियों द्वारा वहाँ की सरकार को मिली थी। जैसे भारत में पुलवामा-हमले की ज़िम्मेवारी 'जैश' ने  खुले तौर पर ली थी और अपनी 'ताक़त' का प्रदर्शन किया था, वैसे ही श्रीलंका में ईस्टर पर हुए हमलों की ज़िम्मेवारी 'ISIS' ने ली थी। जब ऐसे हमले हो चुके होते हैं, तब तो ये संगठन शान से और निर्लज्जतापूर्वक अपने कृत्य पर गर्व करते हैं, लेकिन जब सरकारेँ सुरक्षा-कारणों से बुरक़े पर रोक लगाने का निर्णय लेती हैं तो 'मानवाधिकार' और 'धार्मिक स्वतन्त्रता' के हनन का हवाला दिया जाता है !      
भारत में भी इस घटना / विषय पर, लेकिन ज़रा भिन्न परिप्रेक्ष्य में बुरक़े पर प्रतिबंध लगाए जाने की ज़रुरत अनुभव की गयी। यह इसलिए हुआ कि संभवतः कुछ मतदाता महिलाओं ने इस बहाने 'चेहरा' ढाँककर दो-तीन बार दूसरी मतदाताओं के नाम पर फ़र्ज़ी वोटिंग की। यह शंका भी उठी कि क्या 18 वर्ष से कम आयु की किसी स्त्री ने किसी दूसरी वयस्क स्त्री के नाम पर कहीं फ़र्ज़ी वोटिंग तो नहीं की ?
तब बुरके पर पाबंदी लगाने के प्रश्न पर बुरक़े की तुलना घूँघट से की गई और सवाल उठाया गया कि यदि बुरक़े पर पाबंदी लग सकती है तो घूँघट पर भी क्यों नहीं लगाई जाए !
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि घूँघट किसी के प्रति आदर और सम्मान प्रकट करने के लिए सिर पर ओढ़ा जाता है और ऐसा प्रायः परिचितों, बड़ों और निकट-संबंधियों से पर्दा करने के लिए ही किया जाता है।  पति भी स्त्री के लिए बड़ा और सम्माननीय हो सकता है, फिर भी ज़ाहिर है कि घूँघट स्त्री-प्रकृति की स्वाभाविक लज्जा की प्रवृत्ति का भी द्योतक है। और पति से घूँघट करना केवल इस लज्जा के ही कारण हो सकता है। वास्तव में घूँघट तो पति-पत्नी के प्रेम को रहस्य के आवरण में छिपाकर और गहन तथा गूढ स्वरुप देता है। यहाँ तक कि भक्ति-परंपरा में जहाँ स्त्री पति को परमेश्वर तक मान कर सतीत्व की श्रेष्ठतम आध्यात्मिक स्थिति तक पहुँच सकती है, वहीं भक्त-कवियों ने परमेश्वर को पति मानकर भी घूँघट को अपनी भक्ति की प्रेरणा का स्रोत बनाकर उच्च स्थान दिया है।
जीव ही परमात्मा के प्रेम का भूखा नहीं है, परमात्मा भी जीव के प्रति उत्सुक और प्रेम में इतना ही विकल है कि दोनों के बीच घूँघट, प्रेम के इस गूढ मर्म को खोलता हुआ भी रहस्य ही बने रहने का बहाना होता है। और इस घूँघट के बहाने जहाँ भक्त इस पराये 'संसार' को आँखों से ओझल कर प्रियतम परमेश्वर के रूप-सौंदर्य का पान करता है, वहीं 'संसार' को इसकी भनक तक नहीं हो पाती।
बुरक़ा एक सामाजिक व्यवस्था है जिसका धार्मिक महत्त्व हो सकता है लेकिन बस वहीं तक उसकी हद है। घूँघट में रहते हुए स्त्री और उसके पति के बीच शृंगार-रस का जो रोमांच होता है वह उन्हें भावनात्मक रूप से भी अधिक दृढ़ता से परस्पर जोड़ता है। तब वे एक दूसरे को केवल वासनापूर्ति के साधन की बजाय शुद्ध प्रेम और आत्मीयता की भावना से देखना भी सीख सकते हैं, -जो अंततः भक्ति-रस में भी परिणत हो सकता है और स्त्री-पुरुष के बीच का लौकिक प्रेम तब जीव और उसके परम प्रभु के बीच के दिव्य और अलौकिक प्रेम की ऊँचाई तक भी पहुँच सकता है । फिर भी घूँघट रखना / करना या न करना स्त्री की मर्ज़ी पर ही तय होता है और वैसे भी इसकी बाध्यता तो है ही नहीं जिस पर वैधानिक रूप से रोक लगाए जाने का प्रश्न उठे !
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