मैंने बचपन में ऐसा पहिया देखा था,
जो चलता था गहरी गोलाकार नाली में,
उसमें फिर एक चूना-पत्थर डाला जाता,
टुकड़े-टुकड़े कर पिस जाता था नाली में,
उसे चलाता था बैल एक चक्कर चलकर,
बनता था चूरा बारीक तब वह चूना-पत्थर,
उसे पकाया जाता था फिर अलाव-आँव में,
और वह अनबुझा (पका) चूना आता था गाँव में,
फिर था उसमें रेत आदि मिलाया जाता,
उससे ईंटों दीवारों को, छत को भी जोड़ा जाता,
वे मकान अद्भुत् बहुत मजबूत भी होते थे,
शीत में वो गरम, तो गरमी में ठंडे होते थे ।
अब सीमेंट के बहुमंज़िला भवनों में,
शीत में ठंडे, गरमी में तपते भवनों में,
बहुत शान से हालाँकि हम रहते हैं,
हर मौसम में मार प्रकृति की सहते हैं ।
पर जब तक हमको विकास यूँ करना है
प्रकृति का, अपना विनाश ही करना है !
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