लिखना कितना आसाँ / मुश्किल
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लिखने के लिए हर घड़ी तक़रीबन इतना होता है कि उसे क्रमबद्ध ढंग से सहेजना तक मुमकिन नहीं हो पाता। इतने अलग-अलग तरह के मुद्दे होते हैं जिन पर बहुत कुछ लिखने का मन होता है। इतनी अलग-अलग तरह की एप्रोच होती है कि उनमें से किसे लेकर लिखा जाए यह दुविधा भी बाधा देती है । फिर समय और सुविधा के अनुसार जो लिखा जाता है वह ज़रूरी नहीं कि संतोषप्रद होता ही हो !
कभी कोई कहानी बनते-बनते मिट या भूल जाती है। कभी किसी वजह से लगता है कि इसे 'पोस्ट' करना कहाँ तक ठीक होगा ।
आज ही एक पोस्ट 'स्वाध्याय' में लिखा। कुछ अलग शैली / genre में ।
फिर घर का सामान लेने बाहर गया। वैसे ज़रूरत की सभी चीज़ें आसपास ही मिल जाती हैं, दस मिनट में ले आ सकता था लेकिन तीस मिनट लग गए । जिस परिचित की दूकान पर समय लग गया वे कुछ दिनों पहले बाज़ार के दूसरे सिरे से शाम को पैदल आते हुए मिल गए थे । मतलब यह कि वे मोटर-साइकिल पर मेरी दिशा में मेरे पीछे पीछे आ रहे थे । बोले : "बैठ जाइए!" मैंने कहा : मुझे थोड़ा सामान लेना है। बोले "ले लीजिए।" मैं पास की हार्डवेयर की दूकान पर गया, जो चाहिए था नहीं मिला तो लौट आया ।
बोले : क्या लेना था?
"तारपीन का तेल"
"कुछ रंग-रोगन वग़ैरे कर रहे हैं?"
"नहीं, मच्छर भगाने के लिए। "
"उससे कैसे भागेंगे मच्छर ?"
"जी उसे 'ऑल-ऑउट' की खाली बॉटल में भर देंगे।"
तब तक मेरा घर आ चुका था तो बात अधूरी रह गयी।
आज जब उनकी दूकान पर गया तो मिल गए।
"उससे मच्छर कैसे दूर होंगे?"
"जी कपूर को पीस कर उस तेल में मिलाकर 'ऑल-ऑउट' की पुरानी खाली शीशी में भर कर उसका वैसे ही इस्तेमाल करने से।"
"हाँ ये बड़ी बीमारी है मच्छरों की समस्या भी !"
उनका बेटा मेरे लिए सामान तौल रहा था।
फिर बोले : "हम वो स्प्रे लाए थे तो रोज़ करना पड़ता है। और फिर उसकी गंध से परेशानी भी अलग होती है। इसका कोई स्थायी इलाज नहीं है क्या?"
फिर मैं उन्हें यू-ट्यूब पर देखे उपायों की जानकारी देने लगा। तब तक उनकी दिलचस्पी ख़त्म हो चुकी थी। फिर मैं उन्हें राजीव दीक्षित के विडिओ के बारे में बतलाने लगा । वे किसान हैं इसलिए मैंने उन्हें इस बारे में राजीवजी के द्वारा की गई गहरी रिसर्च और जानकारी के बारे में बताया ।
मैं उत्साहपूर्वक उन्हें बता रहा था कि कैसे पिछले पचास साठ साल में हमने ज़मीन, किसान, और कृषि की हालत बर्बाद कर दी है। कैसे प्राकृतिक तरीके से बिना मशीनों और केमिकल फर्टिलाइज़र्स पेस्टीसाइड्स आदि का उपयोग किए बिना गाय-बैलों की सहायता से ज़मीन को निरंतर उपजाऊ बनाए रखकर अधिक से अधिक उपज पाई जा सकती है । अधिक लोगों को रोज़गार भी दिया जा सकता है, बिजली और पेट्रोल की बचत भी हो सकती है, प्रदूषण भी कम हो सकता है । उनमें इतना धैर्य नहीं था। और मैं राजीवजी के दूसरे विषयों से संबंधित वीडियो के बारे में बता रहा था।
फिर मैंने दूकान पर लगे एक विज्ञापन की ओर इशारा करते हुए कहा :
"देखिए आपके यहाँ भी ये पान-तमाखू गुटका पॉउच आदि मिलते हैं। "
तभी उनका बेटा बोला :
"वहाँ लिखा तो है कि तमाखू से कैन्सर होता है !"
उस विज्ञापन में लिखा है :
"..... फ़िल्टर-बीड़ी दूसरी बीड़ियों से 70 % कम हानिकारक है ।"
"हाँ, आप भी अपनी जवाबदारी से मुक्त और सरकार भी ! व्यापार-व्यवसाय, रोज़गार और देश की प्रगति भी तो ज़रूरी है !"
तभी दीवार पर लगे कैलेंडर पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे इस सन्देश की ओर मेरा ध्यान गया :
"जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है, जो होगा अच्छा होगा, तुम क्या लेकर आए थे जिसे तुमने खो दिया ? तुम क्या लेकर जाओगे? जो लिया यहीं से लिया। क्यों व्यर्थ चिंता करते हो?"
मैंने उनके बेटे को सामान के पैसे चुकाए। तब तक उनसे मिलने उनके कोई दूसरे परिचित आ गए थे, और उन्होंने राहत की साँस ली ।
लौटते समय सोच रहा था कि यह दुनिया मेरी है या नहीं ? इसके लिए मुझे कितना सोचना चाहिए ?
लेकिन अभी तय नहीं कर पा रहा हूँ।
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लिखने के लिए हर घड़ी तक़रीबन इतना होता है कि उसे क्रमबद्ध ढंग से सहेजना तक मुमकिन नहीं हो पाता। इतने अलग-अलग तरह के मुद्दे होते हैं जिन पर बहुत कुछ लिखने का मन होता है। इतनी अलग-अलग तरह की एप्रोच होती है कि उनमें से किसे लेकर लिखा जाए यह दुविधा भी बाधा देती है । फिर समय और सुविधा के अनुसार जो लिखा जाता है वह ज़रूरी नहीं कि संतोषप्रद होता ही हो !
कभी कोई कहानी बनते-बनते मिट या भूल जाती है। कभी किसी वजह से लगता है कि इसे 'पोस्ट' करना कहाँ तक ठीक होगा ।
आज ही एक पोस्ट 'स्वाध्याय' में लिखा। कुछ अलग शैली / genre में ।
फिर घर का सामान लेने बाहर गया। वैसे ज़रूरत की सभी चीज़ें आसपास ही मिल जाती हैं, दस मिनट में ले आ सकता था लेकिन तीस मिनट लग गए । जिस परिचित की दूकान पर समय लग गया वे कुछ दिनों पहले बाज़ार के दूसरे सिरे से शाम को पैदल आते हुए मिल गए थे । मतलब यह कि वे मोटर-साइकिल पर मेरी दिशा में मेरे पीछे पीछे आ रहे थे । बोले : "बैठ जाइए!" मैंने कहा : मुझे थोड़ा सामान लेना है। बोले "ले लीजिए।" मैं पास की हार्डवेयर की दूकान पर गया, जो चाहिए था नहीं मिला तो लौट आया ।
बोले : क्या लेना था?
"तारपीन का तेल"
"कुछ रंग-रोगन वग़ैरे कर रहे हैं?"
"नहीं, मच्छर भगाने के लिए। "
"उससे कैसे भागेंगे मच्छर ?"
"जी उसे 'ऑल-ऑउट' की खाली बॉटल में भर देंगे।"
तब तक मेरा घर आ चुका था तो बात अधूरी रह गयी।
आज जब उनकी दूकान पर गया तो मिल गए।
"उससे मच्छर कैसे दूर होंगे?"
"जी कपूर को पीस कर उस तेल में मिलाकर 'ऑल-ऑउट' की पुरानी खाली शीशी में भर कर उसका वैसे ही इस्तेमाल करने से।"
"हाँ ये बड़ी बीमारी है मच्छरों की समस्या भी !"
उनका बेटा मेरे लिए सामान तौल रहा था।
फिर बोले : "हम वो स्प्रे लाए थे तो रोज़ करना पड़ता है। और फिर उसकी गंध से परेशानी भी अलग होती है। इसका कोई स्थायी इलाज नहीं है क्या?"
फिर मैं उन्हें यू-ट्यूब पर देखे उपायों की जानकारी देने लगा। तब तक उनकी दिलचस्पी ख़त्म हो चुकी थी। फिर मैं उन्हें राजीव दीक्षित के विडिओ के बारे में बतलाने लगा । वे किसान हैं इसलिए मैंने उन्हें इस बारे में राजीवजी के द्वारा की गई गहरी रिसर्च और जानकारी के बारे में बताया ।
मैं उत्साहपूर्वक उन्हें बता रहा था कि कैसे पिछले पचास साठ साल में हमने ज़मीन, किसान, और कृषि की हालत बर्बाद कर दी है। कैसे प्राकृतिक तरीके से बिना मशीनों और केमिकल फर्टिलाइज़र्स पेस्टीसाइड्स आदि का उपयोग किए बिना गाय-बैलों की सहायता से ज़मीन को निरंतर उपजाऊ बनाए रखकर अधिक से अधिक उपज पाई जा सकती है । अधिक लोगों को रोज़गार भी दिया जा सकता है, बिजली और पेट्रोल की बचत भी हो सकती है, प्रदूषण भी कम हो सकता है । उनमें इतना धैर्य नहीं था। और मैं राजीवजी के दूसरे विषयों से संबंधित वीडियो के बारे में बता रहा था।
फिर मैंने दूकान पर लगे एक विज्ञापन की ओर इशारा करते हुए कहा :
"देखिए आपके यहाँ भी ये पान-तमाखू गुटका पॉउच आदि मिलते हैं। "
तभी उनका बेटा बोला :
"वहाँ लिखा तो है कि तमाखू से कैन्सर होता है !"
उस विज्ञापन में लिखा है :
"..... फ़िल्टर-बीड़ी दूसरी बीड़ियों से 70 % कम हानिकारक है ।"
"हाँ, आप भी अपनी जवाबदारी से मुक्त और सरकार भी ! व्यापार-व्यवसाय, रोज़गार और देश की प्रगति भी तो ज़रूरी है !"
तभी दीवार पर लगे कैलेंडर पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे इस सन्देश की ओर मेरा ध्यान गया :
"जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है, जो होगा अच्छा होगा, तुम क्या लेकर आए थे जिसे तुमने खो दिया ? तुम क्या लेकर जाओगे? जो लिया यहीं से लिया। क्यों व्यर्थ चिंता करते हो?"
मैंने उनके बेटे को सामान के पैसे चुकाए। तब तक उनसे मिलने उनके कोई दूसरे परिचित आ गए थे, और उन्होंने राहत की साँस ली ।
लौटते समय सोच रहा था कि यह दुनिया मेरी है या नहीं ? इसके लिए मुझे कितना सोचना चाहिए ?
लेकिन अभी तय नहीं कर पा रहा हूँ।
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