कल / काल का सच
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भौतिक प्रमाणों से परिभाषित काल के पैमाने पर, बीते कल दो कविताएँ लिखीं और यहाँ पोस्ट की थीं।
तब कल्पना तक नहीं थी, श्रीलंका में कहीं कुछ भयावह त्रासदी होनेवाली होगी। बाद में कुछ विस्फोट कहीं हुए हैं ऐसी उड़ती सी ख़बर का पता चला तो सोचा कोई छोटी-मोटी घटना कहीं हुई होगी। जैसे यमन या लीबिया में होनेवाले, सीरिया या अफ़्ग़ानिस्तान में होनेवाले आए दिन के धमाके।
दोपहर दो बजे पता चला कि ये विस्फोट श्रीलंका के गिरजाघरों और होटलों में हुए हैं। दोपहर तक घटना में मरनेवालों का जो आँकड़ा सौ तक था शाम होते-होते दो सौ पार कर गया। चार सौ से ज़्यादा ज़ख़्मी हैं जो ज़रूर इस हादसे के बाद मानसिक आघात (trauma) से भी जूझ रहे होंगे।
आज सुबह NewsX के विडिओ पर पढ़ा कि आततायी होटल में परोसे जानेवाले 'फीस्ट' के लिए खड़े लोगों की लाइन में खड़ा था और पलक झपकते ही उसने आत्महत्या को अंजाम दे दिया।
अब तमाम तरह के अनुमान और क़यास लगाए जा रहे हैं कि कौन सी तंज़ीमें इस वारदात में मुलव्विस हो सकती हैं ! एक एक्सपर्ट बतला रहे थे संभावित फॉल्ट-लाइन्स के बारे में, कि ऐसी ख़ास तीन में से पहली 'एथनिक' हो सकती है, दूसरी जियो-पोलीटिक और तीसरी रिलीजियस हो सकती है।
यह था नतीज़ा और नतीजे के दो भतीजे भी थे जिसके अनुसार "हमें पूरे पिक्चर को ग्लोबल टेररिज्म के परि-प्रेक्ष्य में देखना ज़रूरी है। एक एंगल 'तमिळ-सिंहल' कॉन्फ्लिक्ट था तो दूसरा 'बौद्ध-वर्सस अदर रिलीजन्स' के बीच का कॉन्फ्लिक्ट था तो तीसरा 'जेहादी-कनेक्शन' का था।"
इसे ISIS और पाकिस्तान से प्रायोजित किया गया है, ऐसी संभावनाएँ भी व्यक्त की गईं।
पूरा कार्नेज निश्चित ही बहुत सुनियोजित ढंग से किया गया था और इसमें अवश्य ही किसी बड़ी शक्ति का हाथ था क्योंकि तमाम स्ट्रेटेजिक और लॉजिस्टिक सपोर्ट बारीकी से प्रोवाइड किये गए थे।
'लोकल-कनेक्शन' के सपोर्ट के बिना यह सब होना लगभग असंभव ही कहा जा सकता है।
हाँ, यह सब जानना-खोजना और दोषियों को न्याय के कटघरे तक लाना अपरिहार्यतः ज़रूरी है, लेकिन क्या उससे अधिक ज़रूरी यह नहीं है कि आतंक के मूल स्रोत का पता लगाया जाए?
नहीं, कोई 'धर्म' या विचार / विचारधारा को इसका ज़िम्मेवार ठहरा कर हम इस दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि उस या किसी भी अन्य 'धर्म' या विचार / विचारधारा के प्राण एक अमूर्त तत्व होते हैं जिनके पीछे पूरा मानव-इतिहास ज़िम्मेवार होता है। और फिर यह 'इतिहास' भी क्या पुनः ऐसा ही एक अमूर्त अर्थहीन और कोरा, रिक्त शब्द नहीं है, जो असंख्य घटनाओं की स्मृति है जिन्हें 'अतीत' कहकर जिसे एक ठोस 'यथार्थ' मान लिया जाता है? क्या ये घटनाएँ अपने-आप में कोई स्वतंत्र और निरपेक्ष 'सत्य' हैं ? या बस स्मृति का विशिष्ट क्रम और तारतम्य भर है जो हर व्यक्ति के मन में किसी भी दूसरे व्यक्ति से अत्यंत भिन्न प्रकार का है ?
आप 'सच' पर उंगली नहीं रख सकते, उंगली उठा तक नहीं सकते क्योंकि सत्य अभेद्य, अस्पर्श्य और अच्छेद्य, अविच्छिन्न भी है, लेकिन आप असत्य अवश्य ही इंगित कर सकते हैं। लेकिन आखिर कितने 'असत्य' / झूठ आप अंततः तय कर सकते हैं, जिन्हें 'जोड़कर' 'इतिहास' का एक पृष्ठ, -उसकी कोई इबारत लिख सकेंगे? फिर इबारत की व्याख्या हर कोई अपने ढंग से करेगा इस बीच 'सत्य' लहूलुहान होकर तड़पता रहेगा।
क्या किसी घटना के होने -न -होने के लिए हर मनुष्य ही सामूहिक और वैयक्तिक रूप से भी समान रूप से उत्तरदायी नहीं होता ? फिर इसका दायित्व केवल किसी 'समूह' तक कैसे तय किया जा सकता है? लेकिन क्या हम अक्षरशः यही नहीं कर रहे हैं ? क्या राजनीति ऐसा ही नहीं करती? वह फिर चाहे धर्म के नाम पर हो, राष्ट्र के नाम पर, भाषा या जाति, समाज या समुदाय, संस्कृति या लिंगभेद के आधार पर हो !
जब तक हम राजनीति में कोई हल पाने की आशा रखते हैं तब तक हमारे दुर्भाग्य का अंत कैसे हो सकता है?
हिंसा, युद्ध और शान्ति, सौहार्द्र और वैमनस्य, मानव के भीतर भी वैसे ही अमूर्त हैं जैसे कि वे समूह में प्रकट और प्रत्यक्ष जान पड़ते हैं।
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भौतिक प्रमाणों से परिभाषित काल के पैमाने पर, बीते कल दो कविताएँ लिखीं और यहाँ पोस्ट की थीं।
तब कल्पना तक नहीं थी, श्रीलंका में कहीं कुछ भयावह त्रासदी होनेवाली होगी। बाद में कुछ विस्फोट कहीं हुए हैं ऐसी उड़ती सी ख़बर का पता चला तो सोचा कोई छोटी-मोटी घटना कहीं हुई होगी। जैसे यमन या लीबिया में होनेवाले, सीरिया या अफ़्ग़ानिस्तान में होनेवाले आए दिन के धमाके।
दोपहर दो बजे पता चला कि ये विस्फोट श्रीलंका के गिरजाघरों और होटलों में हुए हैं। दोपहर तक घटना में मरनेवालों का जो आँकड़ा सौ तक था शाम होते-होते दो सौ पार कर गया। चार सौ से ज़्यादा ज़ख़्मी हैं जो ज़रूर इस हादसे के बाद मानसिक आघात (trauma) से भी जूझ रहे होंगे।
आज सुबह NewsX के विडिओ पर पढ़ा कि आततायी होटल में परोसे जानेवाले 'फीस्ट' के लिए खड़े लोगों की लाइन में खड़ा था और पलक झपकते ही उसने आत्महत्या को अंजाम दे दिया।
अब तमाम तरह के अनुमान और क़यास लगाए जा रहे हैं कि कौन सी तंज़ीमें इस वारदात में मुलव्विस हो सकती हैं ! एक एक्सपर्ट बतला रहे थे संभावित फॉल्ट-लाइन्स के बारे में, कि ऐसी ख़ास तीन में से पहली 'एथनिक' हो सकती है, दूसरी जियो-पोलीटिक और तीसरी रिलीजियस हो सकती है।
यह था नतीज़ा और नतीजे के दो भतीजे भी थे जिसके अनुसार "हमें पूरे पिक्चर को ग्लोबल टेररिज्म के परि-प्रेक्ष्य में देखना ज़रूरी है। एक एंगल 'तमिळ-सिंहल' कॉन्फ्लिक्ट था तो दूसरा 'बौद्ध-वर्सस अदर रिलीजन्स' के बीच का कॉन्फ्लिक्ट था तो तीसरा 'जेहादी-कनेक्शन' का था।"
इसे ISIS और पाकिस्तान से प्रायोजित किया गया है, ऐसी संभावनाएँ भी व्यक्त की गईं।
पूरा कार्नेज निश्चित ही बहुत सुनियोजित ढंग से किया गया था और इसमें अवश्य ही किसी बड़ी शक्ति का हाथ था क्योंकि तमाम स्ट्रेटेजिक और लॉजिस्टिक सपोर्ट बारीकी से प्रोवाइड किये गए थे।
'लोकल-कनेक्शन' के सपोर्ट के बिना यह सब होना लगभग असंभव ही कहा जा सकता है।
हाँ, यह सब जानना-खोजना और दोषियों को न्याय के कटघरे तक लाना अपरिहार्यतः ज़रूरी है, लेकिन क्या उससे अधिक ज़रूरी यह नहीं है कि आतंक के मूल स्रोत का पता लगाया जाए?
नहीं, कोई 'धर्म' या विचार / विचारधारा को इसका ज़िम्मेवार ठहरा कर हम इस दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि उस या किसी भी अन्य 'धर्म' या विचार / विचारधारा के प्राण एक अमूर्त तत्व होते हैं जिनके पीछे पूरा मानव-इतिहास ज़िम्मेवार होता है। और फिर यह 'इतिहास' भी क्या पुनः ऐसा ही एक अमूर्त अर्थहीन और कोरा, रिक्त शब्द नहीं है, जो असंख्य घटनाओं की स्मृति है जिन्हें 'अतीत' कहकर जिसे एक ठोस 'यथार्थ' मान लिया जाता है? क्या ये घटनाएँ अपने-आप में कोई स्वतंत्र और निरपेक्ष 'सत्य' हैं ? या बस स्मृति का विशिष्ट क्रम और तारतम्य भर है जो हर व्यक्ति के मन में किसी भी दूसरे व्यक्ति से अत्यंत भिन्न प्रकार का है ?
आप 'सच' पर उंगली नहीं रख सकते, उंगली उठा तक नहीं सकते क्योंकि सत्य अभेद्य, अस्पर्श्य और अच्छेद्य, अविच्छिन्न भी है, लेकिन आप असत्य अवश्य ही इंगित कर सकते हैं। लेकिन आखिर कितने 'असत्य' / झूठ आप अंततः तय कर सकते हैं, जिन्हें 'जोड़कर' 'इतिहास' का एक पृष्ठ, -उसकी कोई इबारत लिख सकेंगे? फिर इबारत की व्याख्या हर कोई अपने ढंग से करेगा इस बीच 'सत्य' लहूलुहान होकर तड़पता रहेगा।
क्या किसी घटना के होने -न -होने के लिए हर मनुष्य ही सामूहिक और वैयक्तिक रूप से भी समान रूप से उत्तरदायी नहीं होता ? फिर इसका दायित्व केवल किसी 'समूह' तक कैसे तय किया जा सकता है? लेकिन क्या हम अक्षरशः यही नहीं कर रहे हैं ? क्या राजनीति ऐसा ही नहीं करती? वह फिर चाहे धर्म के नाम पर हो, राष्ट्र के नाम पर, भाषा या जाति, समाज या समुदाय, संस्कृति या लिंगभेद के आधार पर हो !
जब तक हम राजनीति में कोई हल पाने की आशा रखते हैं तब तक हमारे दुर्भाग्य का अंत कैसे हो सकता है?
हिंसा, युद्ध और शान्ति, सौहार्द्र और वैमनस्य, मानव के भीतर भी वैसे ही अमूर्त हैं जैसे कि वे समूह में प्रकट और प्रत्यक्ष जान पड़ते हैं।
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