बॉलीवुड से -
"क्या हिन्दू हिंसक होते हैं?"
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बॉलीवुड की एक नर्त्तकी ने अभी दो-तीन दिन पहले कहा था :
"हिन्दू हिंसक होते हैं ।"
अभी-अभी राजनीति में उसने प्रवेश किया हैं ।
मोदी-लहर हो या मोदी-विरोध की लहर, क्या पता कौन सी काम आ जाए !
एक बुद्ध-कथा याद आती है ।
कोई गणिका एक युवा भिक्षु पर आसक्त थी ।
वह बार-बार उसे चुनौती देती थी कि अगर उसमें पौरुष है तो वह इसे सिद्ध करे । संकेत स्पष्ट था कि वह उसके प्रेमजाल में फँसकर इसे सिद्ध करे । तात्पर्य यह भी था कि गणिका को उससे वैसा ही ’प्रेम’ था जिसका उल्लेख और प्रदर्शन बॉलीवुड की फ़िल्मों में किया जाता है ।
और इसमें शायद कोई भी ’चैनॆल’ पीछे नहीं है, वो ’चैनॆल’ भी जो ’हिन्दुत्व’ की संस्कृति और परंपरा के स्वघोषित संरक्षक बन-बैठे हैं ।
कथा कहती है, उस नर्त्तकी से भिक्षु ने कहा :
"उचित समय आने पर मैं इसका उत्तर अवश्य दूँगा, प्रतीक्षा करो ।"
वर्षों बीत गए ।
वह गणिका अब युवा न रही, केशों में सफ़ेदी झाँकने लगी, दूसरे भी ऐसे लक्षण प्रकट होने लगे जिसे छिपाना उसके लिए संभव न रहा । तब उन सभी ने, जो उसके रूप और यौवन के आकर्षण से मोहित होकर उससे प्रेम-याचना करते थे, उसे छोड़ दिया और उसे भूल ही गए । तब अत्यन्त विपन्न, निर्धनता की अवस्था में एक बार पुनः उस भिक्षु से उसका सामना होने पर उसने देखा कि वह भिक्षु भी बहुत वृद्ध हो चुका था ।
तब भिक्षु ने उससे पूछा : "क्या तुम्हें याद है कि तुम्हें मैंने एक वचन दिया था?"
"नहीं तो!"
"कुछ समय पहले तुम मेरे पौरुष पर शंका प्रकट किया करती थी । तब तुम बस रूप-यौवन से संपन्न स्त्री ही थी, और मैं युवा था। तब तुमसे मैंने कहा था कि उचित समय आने पर मैं इसका उत्तर अवश्य दूँगा ।
सुनो ! तब मैं युवा था और उस समय वासना में न बह जाना ही मेरे लिए, मेरे पौरुष के समक्ष अत्यन्त प्रबल चुनौती थी, और इसका प्रत्युत्तर मैंने मन पर संयम रखकर सफलता से दिया । अब मैं वृद्ध हो रहा हूँ । अब वह चुनौती भी न रही । यही मेरा पौरुष है । यदि मैं तुम्हारे या किसी दूसरी स्त्री से आकर्षित होकर संयम खो देता तो इस परीक्षा में सफल कैसे हो सकता था ?"
बॉलीवुड या अन्य तथाकथित ’कला-क्षेत्र’ में ’सफल’ या ’विफल’ हो जाने के बाद कुछ कलाकार / बुद्धिजीवी / खिलाड़ी राजनीति और पत्रकारिता में नई संभावनाएँ तलाशने लगते हैं ।
तब तक उन्हें इतनी ’प्रसिद्धि’ मिल चुकी होती है जिसे भुनाकर वे नए मंच पर अवतरित हो सकें ।
फिर वे ’हिन्दू’ और ’हिन्दुत्व’ के पक्ष (या विरोध) में खड़े होकर समाज के विभिन्न वर्गों को आकर्षित करने की क़ोशिश करते हैं । (चित भी मेरी पट भी मेरी अंटी मेरे बाप की !)
यहाँ उनका गणित कभी तो काम आ जाता है, लेकिन कभी-कभी फ़ेल भी हो जाता है ।
पहला सवाल यह है कि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ क्या है? -इस बारे में क्या ऐसा कोई सुनिश्चित उत्तर दिया जा सकता है, जिस पर सब राज़ी हो सकें?
जबकि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ क्या नहीं है? - इस बारे में शायद ऐसा स्पष्ट उत्तर अवश्य ही दिया जा सकता है ।
फ़िर भी ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’, राजनीति, संस्कृति और सामाजिक धर्म और 'राष्ट्र' की कसौटी पर इतना व्यापक अर्थ रखता है कि यही ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ की ताक़त और कमज़ोरी भी है ।
और इसी को पेशेवर राजनीति करनेवाले, ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ के पक्षधर और विरोधी भी अपने औज़ार की तरह इस्तेमाल करते हैं ।
"क्या हिन्दू हिंसक होते हैं ?" -यह प्रश्न इन्हीं पेशेवर राजनीतिज्ञों के लिए एक ऐसा खिलौना है जिससे वे अनंत काल तक (या उम्र भर) खेलते रह सकते हैं ।
सवाल यहाँ यह भी है कि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ को समग्रतः समझने के लिए :
'हिन्दू / हिंदुत्व क्या है ?
और
'हिन्दू / हिंदुत्व क्या नहीं है?
इन दोनों प्रश्नों पर साथ-साथ सोचा जाना क्या बहुत ज़रूरी नहीं है ?
इसके बावज़ूद, ऐसी समझ अंततः बस आपकी अपनी ही होगी।
ज़रूरी नहीं कि जिससे आप दूसरों को भी राज़ी कर ही सकें ।
इसे दुर्भाग्य कहें या लापरवाही यह हमें ही तय करना है ।
चुनाव और राजनीति का चोली-दामन का साथ तो होता ही है!
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"क्या हिन्दू हिंसक होते हैं?"
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बॉलीवुड की एक नर्त्तकी ने अभी दो-तीन दिन पहले कहा था :
"हिन्दू हिंसक होते हैं ।"
अभी-अभी राजनीति में उसने प्रवेश किया हैं ।
मोदी-लहर हो या मोदी-विरोध की लहर, क्या पता कौन सी काम आ जाए !
एक बुद्ध-कथा याद आती है ।
कोई गणिका एक युवा भिक्षु पर आसक्त थी ।
वह बार-बार उसे चुनौती देती थी कि अगर उसमें पौरुष है तो वह इसे सिद्ध करे । संकेत स्पष्ट था कि वह उसके प्रेमजाल में फँसकर इसे सिद्ध करे । तात्पर्य यह भी था कि गणिका को उससे वैसा ही ’प्रेम’ था जिसका उल्लेख और प्रदर्शन बॉलीवुड की फ़िल्मों में किया जाता है ।
और इसमें शायद कोई भी ’चैनॆल’ पीछे नहीं है, वो ’चैनॆल’ भी जो ’हिन्दुत्व’ की संस्कृति और परंपरा के स्वघोषित संरक्षक बन-बैठे हैं ।
कथा कहती है, उस नर्त्तकी से भिक्षु ने कहा :
"उचित समय आने पर मैं इसका उत्तर अवश्य दूँगा, प्रतीक्षा करो ।"
वर्षों बीत गए ।
वह गणिका अब युवा न रही, केशों में सफ़ेदी झाँकने लगी, दूसरे भी ऐसे लक्षण प्रकट होने लगे जिसे छिपाना उसके लिए संभव न रहा । तब उन सभी ने, जो उसके रूप और यौवन के आकर्षण से मोहित होकर उससे प्रेम-याचना करते थे, उसे छोड़ दिया और उसे भूल ही गए । तब अत्यन्त विपन्न, निर्धनता की अवस्था में एक बार पुनः उस भिक्षु से उसका सामना होने पर उसने देखा कि वह भिक्षु भी बहुत वृद्ध हो चुका था ।
तब भिक्षु ने उससे पूछा : "क्या तुम्हें याद है कि तुम्हें मैंने एक वचन दिया था?"
"नहीं तो!"
"कुछ समय पहले तुम मेरे पौरुष पर शंका प्रकट किया करती थी । तब तुम बस रूप-यौवन से संपन्न स्त्री ही थी, और मैं युवा था। तब तुमसे मैंने कहा था कि उचित समय आने पर मैं इसका उत्तर अवश्य दूँगा ।
सुनो ! तब मैं युवा था और उस समय वासना में न बह जाना ही मेरे लिए, मेरे पौरुष के समक्ष अत्यन्त प्रबल चुनौती थी, और इसका प्रत्युत्तर मैंने मन पर संयम रखकर सफलता से दिया । अब मैं वृद्ध हो रहा हूँ । अब वह चुनौती भी न रही । यही मेरा पौरुष है । यदि मैं तुम्हारे या किसी दूसरी स्त्री से आकर्षित होकर संयम खो देता तो इस परीक्षा में सफल कैसे हो सकता था ?"
बॉलीवुड या अन्य तथाकथित ’कला-क्षेत्र’ में ’सफल’ या ’विफल’ हो जाने के बाद कुछ कलाकार / बुद्धिजीवी / खिलाड़ी राजनीति और पत्रकारिता में नई संभावनाएँ तलाशने लगते हैं ।
तब तक उन्हें इतनी ’प्रसिद्धि’ मिल चुकी होती है जिसे भुनाकर वे नए मंच पर अवतरित हो सकें ।
फिर वे ’हिन्दू’ और ’हिन्दुत्व’ के पक्ष (या विरोध) में खड़े होकर समाज के विभिन्न वर्गों को आकर्षित करने की क़ोशिश करते हैं । (चित भी मेरी पट भी मेरी अंटी मेरे बाप की !)
यहाँ उनका गणित कभी तो काम आ जाता है, लेकिन कभी-कभी फ़ेल भी हो जाता है ।
पहला सवाल यह है कि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ क्या है? -इस बारे में क्या ऐसा कोई सुनिश्चित उत्तर दिया जा सकता है, जिस पर सब राज़ी हो सकें?
जबकि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ क्या नहीं है? - इस बारे में शायद ऐसा स्पष्ट उत्तर अवश्य ही दिया जा सकता है ।
फ़िर भी ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’, राजनीति, संस्कृति और सामाजिक धर्म और 'राष्ट्र' की कसौटी पर इतना व्यापक अर्थ रखता है कि यही ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ की ताक़त और कमज़ोरी भी है ।
और इसी को पेशेवर राजनीति करनेवाले, ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ के पक्षधर और विरोधी भी अपने औज़ार की तरह इस्तेमाल करते हैं ।
"क्या हिन्दू हिंसक होते हैं ?" -यह प्रश्न इन्हीं पेशेवर राजनीतिज्ञों के लिए एक ऐसा खिलौना है जिससे वे अनंत काल तक (या उम्र भर) खेलते रह सकते हैं ।
सवाल यहाँ यह भी है कि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ को समग्रतः समझने के लिए :
'हिन्दू / हिंदुत्व क्या है ?
और
'हिन्दू / हिंदुत्व क्या नहीं है?
इन दोनों प्रश्नों पर साथ-साथ सोचा जाना क्या बहुत ज़रूरी नहीं है ?
इसके बावज़ूद, ऐसी समझ अंततः बस आपकी अपनी ही होगी।
ज़रूरी नहीं कि जिससे आप दूसरों को भी राज़ी कर ही सकें ।
इसे दुर्भाग्य कहें या लापरवाही यह हमें ही तय करना है ।
चुनाव और राजनीति का चोली-दामन का साथ तो होता ही है!
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