April 08, 2019

नर्मदा और कावेरी

from my swaadhyaaya blog.
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hindi-ka-blog के पाठकों के लिए
वितस्ता, वितण्डा और वैतरणी
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नर्मदा और कावेरी कुछ दूर चलती हैं जिसके बाद ओंकारेश्ववर से कुछ मील पहले ही उनका संगम होता है ।
संगम के बाद एक ही नदी की तरह दिखाई देती उस नदी के रास्ते में मांधाता पर्वत (अर्थात् ॐकारेश्वर भगवान् शिव) के सामने प्रस्तुत होने से वह नदी पुनः दो धाराओं में बँटकर दो भिन्न नदियों का भ्रम पैदा करती हुई उसके दोनों ओर से रास्ता बना लेती हैं ।
इस प्रकार उस स्थान पर वास्तव में उस नदी का पुनः दो धाराओं में विभाजन हो जाता है किंतु सामान्यतः उसे ’संगम’ ही समझ लिया जाता है । पर्वत के दोनों ओर से जाने के बाद वे दो धाराएँ  पुनः मिलती हैं और उसे वास्तव में उनका संगम कहा जा सकता है । पर्वत के चतुर्दिक् एक् मार्ग है जिसे परिक्रमा-पथ कहा जाता है जिस पर श्रद्धालु किसी भी पर्व या तिथि पर या वैसे ही भक्ति की भावना से प्रेरित होकर प्रदक्षिणा करते हैं । यह प्रदक्षिणा एक दृष्टि से पर्वत की ही प्रदक्षिणा है किंतु उसे नर्मदा की भी उस प्रदक्षिणा के समान ही पुण्य फल देने वाला कहा गया है जिसे पैदल चलकर पूर्ण करने के लिए किसी को प्रायः तीन वर्ष तीन माह और तेरह दिन लगते हैं ।
उस दूसरे संगम पर जहाँ नर्मदा नदी की पृथक् हुई दो धाराएँ पुनः मिलती हैं कभी कभी मैं शाम को भ्रमण करते हुए पहुँच जाता था ।
अवसर या तिथि आदि के अनुसार प्रायः वहाँ इने-गिने या बहुत से यात्रियों का आगमन दिन भर होता रहता था और शाम होते-होते वह तट सुनसान हो जाता था । वहीं एक दिन एक औघड़ साधु के दर्शन हुए थे । मैंने कौतूहलवश जाकर उन्हें चरण-स्पर्श किए । उन्होंने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया तो मैं उनके समीप ही बैठ गया । वह भूमि बहुत स्वच्छ थी और सामने ही नर्मदा-कावेरी का मन्दिर होने से भी उसकी सफ़ाई भी कोई न कोई रोज़ ही करता था । किनारे पर एक दो गुमटियाँ और कच्ची-पक्की झोंपड़ियाँ थीं जहाँ नारियल, पूजा-सामग्री और दूसरी ऐसी वस्तुएँ मिल जाती थीं जिन्हें वहाँ आनेवाले श्रद्धालु खरीदा करते थे । पर्यटकों के लिए चने-चिरोंजी, परमल, सेंव आदि भी  मिलते थे जिसमें से चने बन्दरों को और परमल मछलियों को खिलाया जाता था । वहाँ चाय तो मिलती ही थी ।
उस दिन उस साधु के पास बैठते ही मेरे मन में प्रश्न उठा कि इस साधु का जीवन क्या है, संसार उसके लिए क्या और कैसा है, ’मुक्ति’ ईश्वर आदि के बारे में उसकी क्या अनुभूति, धारणा आदि हैं और मैं बस इन्हीं प्रश्नों पर सोचता हुआ चुपचाप बैठा था ।
"माई के दर्शन करने आए हो?"
उसने पूछा ।
"जी!"
"कर लिए दर्शन?
"जी!"
"हो गए दर्शन!"
तब मैं चौंका ।
वे हँसने लगे ।
"क्या पता?"
मैंने असमंजस प्रकट करते हुए कहा ।
वे कुछ नहीं बोले ।
कुछ पल बाद मैंने साहसपूर्वक पूछा :
"दर्शन करने और दर्शन होने में क्या फ़र्क है?"
"जब हम दर्शन ’करते’ हैं तब हमारे मन में दुनिया होती है और हम अपनी दुनिया के बारे में अपने खयालों में डूबे होते हैं । लेकिन हमें दर्शन तब होता है जब हमारे मन में ऐसे या दूसरे भी तमाम खयाल, चिन्ताएँ, इच्छा आदि नहीं होते ।"
"जी!"
"देखो ! यहाँ क्या है?"
"पानी, माई, आप और मैं ।
"सचमुच यह सब है?"
"आप बतलाइये ।"
"यह सब तुम्हारा खयाल है ।"
"आपको क्या दिखाई देता है?"
वे मौनभाव से मुझे देखते रहे ।
"मुझे बस माई दिखाई पड़ती हैं और वह शिवस्वरूपा है इसलिए तुम कह सकते हो कि उनमें मुझे शिव ही दिखाई देते हैं । लेकिन मैं कहाँ दर्शन करता हूँ । मुझे बस दर्शन होता है और मैं उसे शब्दों में जोड़-तोड़कर कोई नाम बना लेता हूँ या कोई खयाल पैदा हो जाता है ।"
मैं नहीं जानता था कि क्या कहूँ ।
फ़िर वे ही कहने लगे :
"देखो ये माई जो पानी हैं, इसके पानी की तीन धाराएँ हैं जो अनादि काल से शिव की प्रदक्षिणा करती हैं ।
इन तीन धाराओं में से वह जो नदी के इस किनारे पर हमारी तरफ़ है, उसे वितण्डा कहते हैं :
’मैंने जाना ।’
इस धारा में थोडी दूर जाओगे तो नदी की बीच-धारा है, उसे वितस्ता कहते हैं । और अगर उसे पार कर लिया तो जो तीसरी धारा नदी के दूसरे तट से लगी हुई है, उसे वैतरणी कहते हैं ।
मै अपने संस्कृत ज्ञान को टटोलने लगा :
वितस्ता का विग्रह होगा वितः ता;
पुनः वितः ’वित्’ प्रातिपदिक का पञ्चमी / षष्ठी एकवचन हुआ ।
अर्थात् ज्ञान (के आभास) का विस्तार ।
वैतरणी का अर्थ है यदि कोई इस नदी में उतरा है तो उसे इससे पार होने के लिए या तो वितस्ता से वितण्डा में लौटना और इस पार तक आना होगा जहाँ यह साधु हैं जिन्हें दर्शन हुआ है, या उस दूसरे तट तक जाने के लिए वैतरणी को पार करना होगा ।
मेरी आँखें कब बंद हो गईं मुझे पता तक न चल सका ।
और जब आँखें खुलीं तो मैंने पाया यह तो स्वप्न था !
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