April 09, 2019

'बचपन हर ग़म से बेगाना होता है !'

पहला चुनाव !
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अगर मुझे ठीक ठीक याद है, तो पहली बार मैंने 1962 के चुनाव देखे थे।
उस समय कांग्रेस का चुनाव-चिन्ह दो बैलों की जोड़ी था, तो जनसंघ का चुनाव-चिन्ह था दीपक।  और जो दो चुनाव-चिन्ह याद आते हैं, वे थे संसोपा तथा प्रसोपा के बरगद तथा झोंपड़ी। तब मेरी उम्र 8 वर्ष की उम्र थी।
बैल-जोड़ी और दीपक के बहुत से गोल बैज़ मेरे पास न जाने कहाँ से आ गए थे और हम लोग उनसे 'ताश' खेला करते थे। ऐसे ही 13-13 कार्ड चारों पार्टियों के जमा कर लिए थे और हम चार दोस्त जिनमें से एक कांग्रेसी, एक जनसंघी एक प्रसोपाई तथा एक संसोपाई था मिलाकर ताश का पूरा पैक था हमारे पास। उसमें से मेरा तो कोई नहीं था, हाँ बाकी दो दोस्तों ने ही सभी कार्ड इकट्ठे किए थे।
तब खैरागढ़-'राज' (अब छत्तीसगढ़) में एक 'राज-फैमिली' हुआ करती थी। बहरहाल, हमने अपने कार्ड्स के पीछे A, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, J, Q तथा K लिखकर पूरे बावन कार्ड चार तरह के स्पेड, हार्ट्स, डायमंड्स और क्लब के बना लिए थे। बड़ी मेहनत से बने ये कार्ड एक दिन एक दोस्त के पापा ने ज़ब्त कर लिए थे और उन्हें जला भी दिया था।
उसी साल चीन का हमला हुआ और मेरे उसी दोस्त ने बताया कि मास्टरजी ने कक्षा में सबको कहा है; उसकी हिंदी की किताब का पाठ ८ 'चीनी' फाड़कर फेंक दो। मुझे याद है उस किताब में तीन चीनियों का एक चित्र था जिसमें उनके बाल चोटी की तरह गुँथे हुए थे।  और मैं सोचता था कि सभी चीनी केवल स्त्रियाँ होते / होती हैं।
फिर मुझे पता चला था कि चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई और राष्ट्रपति माओ-त्से-तुंग हैं।
हमारे स्कूल में देशभक्ति की एक फिल्म दिखाई गयी थी जिसमें एनिमेटेड ड्रॉइंग्स के माध्यम से चीनी फौजों द्वारा लद्दाख और नेफ़ा (North East Frontier Area) में चीनियों के आक्रमण को दर्शाया गया था।
राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए मैं घर से पैसे चुरा कर रोज़ 'जमा' करता था।
मैं नहीं जानता था कि इसे 'चोरी' कहा जाता है !
अध्यापक ने स्कूल की सभा में मेरा नाम लेकर मेरी प्रशंसा भी की थी और मैं सोच रहा था कि मेरे इस योगदान के बाद भारतीय सैनिकों को कितनी मदद मिली होगी !
जल्दी ही हमारा स्कूल उस स्थान से हटकर 'इमलीपारा' में लगने लगा था और मेरे पिताजी जो पहले हॉस्टल में वार्डन थे, उन्हें वह क्वार्टर छोड़ना पड़ा तो हम लोग एक दूसरे छोटे से मकान में रहने के लिए चले गए।
वास्तव में वे दिन और तब का खैरागढ़ आज भी हॉन्ट करता है।  न कुछ सुखद था, न कुछ दुःखद।  इसके बाद पिताजी का ट्रांसफर हो गया तो हम लोग एक छोटे से गाँव में रहने लगे। बाद के कई साल बहुत कष्ट और परेशानियों भरे थे।
लेकिन ज़िंदगी में किसी चुनाव में मेरी दिलचस्पी कभी नहीं रही।
1978 में जे.कृष्णमूर्ति के साहित्य में 'Choice-less Awareness' / 'चुनावरहित सजगता' के बारे में पढ़ा तो लगा कि मेरे बचपन से ही मैं इसी तथ्य को जीता रहा हूँ।
यही मेरा 'प्रथम और अंतिम चुनाव' भी सिद्ध हुआ।
और यही 'प्रथम और अंतिम मुक्ति' भी ।
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