April 14, 2019

देर आयद दुरुस्त आयद

हफ़्ते भर से गर्मी अचानक परवान चढने लगी है। 
"दिन तो गुज़र जायेगा,
क्या होगा जब रात हुई !!"
ये हालत है।
नावघाट-खेड़ी में रहते हुए सोचा था कि खिड़कियों पर वैसी ही प्लास्टिक-जाली लगा दूँगा जैसे उज्जैन के मकान में लगा दी थी। कमाल है जो एक भी मच्छर तशरीफ़ ला सकता हो! बहरहाल कुछ तो मेरी इस बदतमीज़ी को धता बता कर शान से तब चले आते थे जब किसी वजह से कभी-कभी लापरवाही से दरवाज़ा खुला रह जाता था।  पर इससे ख़ास परेशानी नहीं थी।  उन दिनों इतनी गर्मी भी कभी कभी ही पड़ती थी।
नावघाट-खेड़ी किन्हीं दूसरे कारणों से छोड़ना पड़ा और प्लास्टिक की वो जालियाँ कभी नहीं लग पाईं वहाँ से आते समय यहाँ ले आया ।
इससे यही साबित होता है कि हालाँकि हम अकसर किसी भी बात के बहुत से संभावित कारण तय करते रहते हैं लेकिन जो होता है वह क्यों हुआ इसके कुछ ही कारण उनमें से सत्य सिद्ध होते हैं। और जो होता है वह प्रायः बहुत अनिश्चित और अप्रत्याशित ही होता है फिर वह अच्छा होता  या बुरा, सही हो या गलत।
इस शहर में आने के बाद उन जालियों को खिड़कियों पर उसी तरह फिट कर दिया गया जैसा कि उज्जैन के मकान में किया था।  लेकिन खिड़कियों के खुलने से क्या होता है? पिछली गर्मियों में देखा कि या तो इस शहर में हवा इतनी ठिठकी ठिठकी सी शरमाई सी रहती है कि मच्छर तो क्या, हवा का कोई झोंका तक भूल कर भी भीतर नहीं झाँकता।
"इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ!"
जब बरसों पहले (अगर मेरी याददाश्त सही है तो), स्व. दुष्यंत कुमार जी के लिखे इस शेर को पढ़ते ही मैं झूम उठा था।  मेरी उम्र तब 23-24 साल थी। जब हम हर किसी झोंके के साथ दिशा बदलते रहते हैं और बहुत जोश में लेकिन थोड़े या बहुत कम ही होश में होते हैं। तब मैंने इस शेर को सामाजिक असंवेदनशीलता की ओर किए गए संकेत की तरह साहित्यिक अर्थ में ग्रहण किया था। उस अर्थ में ग्रहण करने के 40 साल बाद आज सुबह सुबह ब्रह्म-मुहूर्त में छत से घर में और घर से छत पर पेंडुलम की तरह फेरे लगाते-लगाते 'खिड़कियों' का एक दूसरा अर्थ मुझ पर प्रकट हुआ।  ऐसा कहना गलत न होगा कि शायर का संकेत साहित्यिक अर्थ में प्रकटतः भले ही सामाजिक असंवेदनशीलता की ओर रहा होगा, लेकिन वास्तविक इशारा उन खिड़कियों की ओर रहा होगा जो हमारे बंद दिमाग़ में रोशनी के आने का रास्ता हो सकती हैं। जिनके खुलने से उन रूढ़ियों और मान्यताओं पर रौशनी और हमारी नज़र एक साथ पड़ती है, जिनमें हमारा दिमाग इस क़दर जकड़ा हुआ है कि हम बरात के निकलने या वारदात के होने या होने से टालने के लिए क्या किया जाना ज़रूरी है इसके प्रति लापरवाह होते हैं।
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