कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 10
______________________________
इन दिनों स्वामी स्वरूपानंद शंकराचार्य नाम अखबारों की सुर्ख़ियो में रहता है। मेरे पास न तो टीवी है, न उसके लिए समय। लेकिन मिलने जुलने वाले किसी बहाने से मुझे टटोलते / कुरेदते रहते हैं।
ऐसे ही एक परिचित पिछले दिनों फ़ोन पर मुझसे चर्चा करते रहे। मेरा सौभाग्य या दुर्भाग्य (यह तो समय ही बतलाएगा) कि वे मेरी किन बातों को वे टेप करते हैं, और उन्होंने मुझसे कह भी रखा है कि आपको बतलाकर ही मैं टेप कर रहा हूँ, आप थोड़ा सावधानी से बोलिए। लेकिन मेरे लिए यह काफ़ी कठिन है।
--
उन्होंने मुझसे 'पात्रता' / 'कर्तव्य' / 'अधिकार' एवं 'उत्तरदायित्व' के बारे में मेरे विचार जानने के लिए मुझसे कई बार विस्तार से चर्चा की है। और मेरा विश्वास है कि वे मेरे विचारों से काफी हद तक संतुष्ट हैं।
उनसे फीडबैक लिया तो बोले :
'हम अधिकार की बात करते हैं, विकास का अधिकार, अवसरों की समानता का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार, और भी बहुत से अधिकार जिनकी बात तथाकथित मानवतावादी संगठन भी जोर-शोर से किया करते हैं। मज़े की बात ये है कि कई बार दो प्रकार के अधिकार परस्पर विरोधी / विपरीत भी हुआ करते हैं। जैसे स्त्री-पुरुष समानता का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार। क्या कोई भी धर्म स्त्री-पुरुष की समानता के अधिकार का पक्षधर है? और क्या स्त्री-पुरुष जन्मना ही किसी हद तक भिन्न-भिन्न प्रकृति के नहीं होते?'
'जी।'
'स्वाभाविक है तब उनके अधिकारों की प्रकृति में भी उस हद तक भिन्नता होगी।'
'जी'
मेरे सौभाग्य से उनका कोई दूसरा कॉल बीच में ही आया तो उन्होंने मुझे सॉरी कहकर होल्ड पर पटक दिया।
और फिर शायद मुझे भूल ही गए।
फिर मैं भी दूसरे कामों में व्यस्त हो गया।
--
फ़ोन पर शायद इस बारे में विस्तार से चर्चा करना असुविधाजनक भी था। और जब तक आप कोई 'स्थापित' व्यक्ति न हों, कौन इतनी ज़हमत उठता है कि आपकी बातों पर ध्यान दे। किसके पास समय है कि आपके 'विचारों' पर फ़ीडबैक दे? किसके पास इतना वक़्त है कि आपकी बातों को सुने भी?
बहरहाल 'ब्लॉग' का धन्यवाद कि आप जब चाहें अपने घर में बैठे बैठे अपनी बाँसुरी सुर में या बेसुरी, जैसी भी चाहें बजा और सुन सकते हैं !
--
सवाल यह नहीं है कि स्वामीजी सही हैं या नहीं, लेकिन उन्होंने जो मुद्दा उठाया है वह अवश्य ही एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। अर्थात् यह कि यदि आप चाहते हैं कि आपकी आस्था पर कोई चोट न करे तो आपको भी दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करना होगा।
साईं बाबा के भक्त उन्हें अवतार मानें या भगवान मानें यह उनकी अपनी आस्था है। और 'स्वतंत्रता' भी है। लेकिन जब साईं की तुलना राम या कृष्ण से की जाएगी तो राम और कृष्ण को भगवान माननेवालों की आस्था पर चोट लगना स्वाभाविक है। ज़ाहिर है कि मंदिर में राम और शिव, काली और दुर्गा, गणेश और बुद्ध, महावीर और तीर्थंकर की प्रतिमाएँ उनके भक्त अपनी अपनी स्वतंत्र आस्था के अनुसार रखते हैं। यदि कोई अपने घर में मंदिर बनाकर कोई अपने इष्ट की पूजा अपने ढंग से करता है तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन जब कोई अपने इष्ट को समाज पर थोपने लगें, तो दूसरों की आस्था पर चोट लगना बिलकुल स्वाभाविक है। न सिर्फ यह, बल्कि अपनी आस्था का, 'धर्मप्रचार' की स्वतंत्रता के अधिकार का नाजायज़ फायदा लेते हुए जब कोई समाज के कुछ वर्गों के मन में नई-नई धारणाएँ आरोपित करता है, तो बीस या पचास साल बाद वे धारणाएँ उनकी 'आस्था' का हिस्सा बन बैठती हैं। इसे क्या कहा जाए? समाज के अवचेतन में ज़मा ऐसी अनेकों धारणाओं से शायद ही किसी का भला होता होगा।
यदि किसी का भगवान या इष्ट सचमुच प्राणिमात्र के प्रति करुणाशील है, तो यह कदापि स्वीकार न करेगा कि उनका भक्त किसी दूसरे की आस्थाओं को विरूपित भी करे। चोट पहुँचाना तो बहुत दूर की बात है।
----
______________________________
इन दिनों स्वामी स्वरूपानंद शंकराचार्य नाम अखबारों की सुर्ख़ियो में रहता है। मेरे पास न तो टीवी है, न उसके लिए समय। लेकिन मिलने जुलने वाले किसी बहाने से मुझे टटोलते / कुरेदते रहते हैं।
ऐसे ही एक परिचित पिछले दिनों फ़ोन पर मुझसे चर्चा करते रहे। मेरा सौभाग्य या दुर्भाग्य (यह तो समय ही बतलाएगा) कि वे मेरी किन बातों को वे टेप करते हैं, और उन्होंने मुझसे कह भी रखा है कि आपको बतलाकर ही मैं टेप कर रहा हूँ, आप थोड़ा सावधानी से बोलिए। लेकिन मेरे लिए यह काफ़ी कठिन है।
--
उन्होंने मुझसे 'पात्रता' / 'कर्तव्य' / 'अधिकार' एवं 'उत्तरदायित्व' के बारे में मेरे विचार जानने के लिए मुझसे कई बार विस्तार से चर्चा की है। और मेरा विश्वास है कि वे मेरे विचारों से काफी हद तक संतुष्ट हैं।
उनसे फीडबैक लिया तो बोले :
'हम अधिकार की बात करते हैं, विकास का अधिकार, अवसरों की समानता का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार, और भी बहुत से अधिकार जिनकी बात तथाकथित मानवतावादी संगठन भी जोर-शोर से किया करते हैं। मज़े की बात ये है कि कई बार दो प्रकार के अधिकार परस्पर विरोधी / विपरीत भी हुआ करते हैं। जैसे स्त्री-पुरुष समानता का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार। क्या कोई भी धर्म स्त्री-पुरुष की समानता के अधिकार का पक्षधर है? और क्या स्त्री-पुरुष जन्मना ही किसी हद तक भिन्न-भिन्न प्रकृति के नहीं होते?'
'जी।'
'स्वाभाविक है तब उनके अधिकारों की प्रकृति में भी उस हद तक भिन्नता होगी।'
'जी'
मेरे सौभाग्य से उनका कोई दूसरा कॉल बीच में ही आया तो उन्होंने मुझे सॉरी कहकर होल्ड पर पटक दिया।
और फिर शायद मुझे भूल ही गए।
फिर मैं भी दूसरे कामों में व्यस्त हो गया।
--
फ़ोन पर शायद इस बारे में विस्तार से चर्चा करना असुविधाजनक भी था। और जब तक आप कोई 'स्थापित' व्यक्ति न हों, कौन इतनी ज़हमत उठता है कि आपकी बातों पर ध्यान दे। किसके पास समय है कि आपके 'विचारों' पर फ़ीडबैक दे? किसके पास इतना वक़्त है कि आपकी बातों को सुने भी?
बहरहाल 'ब्लॉग' का धन्यवाद कि आप जब चाहें अपने घर में बैठे बैठे अपनी बाँसुरी सुर में या बेसुरी, जैसी भी चाहें बजा और सुन सकते हैं !
--
सवाल यह नहीं है कि स्वामीजी सही हैं या नहीं, लेकिन उन्होंने जो मुद्दा उठाया है वह अवश्य ही एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। अर्थात् यह कि यदि आप चाहते हैं कि आपकी आस्था पर कोई चोट न करे तो आपको भी दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करना होगा।
साईं बाबा के भक्त उन्हें अवतार मानें या भगवान मानें यह उनकी अपनी आस्था है। और 'स्वतंत्रता' भी है। लेकिन जब साईं की तुलना राम या कृष्ण से की जाएगी तो राम और कृष्ण को भगवान माननेवालों की आस्था पर चोट लगना स्वाभाविक है। ज़ाहिर है कि मंदिर में राम और शिव, काली और दुर्गा, गणेश और बुद्ध, महावीर और तीर्थंकर की प्रतिमाएँ उनके भक्त अपनी अपनी स्वतंत्र आस्था के अनुसार रखते हैं। यदि कोई अपने घर में मंदिर बनाकर कोई अपने इष्ट की पूजा अपने ढंग से करता है तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन जब कोई अपने इष्ट को समाज पर थोपने लगें, तो दूसरों की आस्था पर चोट लगना बिलकुल स्वाभाविक है। न सिर्फ यह, बल्कि अपनी आस्था का, 'धर्मप्रचार' की स्वतंत्रता के अधिकार का नाजायज़ फायदा लेते हुए जब कोई समाज के कुछ वर्गों के मन में नई-नई धारणाएँ आरोपित करता है, तो बीस या पचास साल बाद वे धारणाएँ उनकी 'आस्था' का हिस्सा बन बैठती हैं। इसे क्या कहा जाए? समाज के अवचेतन में ज़मा ऐसी अनेकों धारणाओं से शायद ही किसी का भला होता होगा।
यदि किसी का भगवान या इष्ट सचमुच प्राणिमात्र के प्रति करुणाशील है, तो यह कदापि स्वीकार न करेगा कि उनका भक्त किसी दूसरे की आस्थाओं को विरूपित भी करे। चोट पहुँचाना तो बहुत दूर की बात है।
----
No comments:
Post a Comment