दिक्काल कथा : आत्मा के परिप्रेक्ष्य में :
Sri J.Krishnamurti notes :
Time and Space
But exist in mind,
(Poems and Parables of J.Krishnamurti)
श्री जे.कृष्णमूर्ति द्वारा लिखी गईं उपरोक्त पंक्तियाँ उनकी इस उल्लिखित पुस्तक में पढ़ी जा सकती हैं।
हिन्दी में :
काल और समय,
होते हैं मन के भीतर!
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श्री रमण महर्षि के शब्दों में :
क्व भाति दिक्काल कथा विनाऽस्मा
न्दिक्काल लीलेह वपुर्वयं चेत् ।
न क्वापि भामो न कदापि भामो
वयं तु सर्वत्र सदा च भामः ।।१८
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(सद्दर्शनम्)
हमारे अपने (शरीर रूपी अस्तित्व के) अभाव में स्थान और काल की प्रतीति किसे और कैसे हो सकती है! यह दिक्काल कथा वास्तव में हम पर ही अवलंबित है! यदि हम न हों तो न तो यह शरीर, न दिक्काल ही हो सकता है।
अतः दिक्काल के रूप में, तथा संसार के रूप में भी जो भी है, वह सब हमारा अपना ही (आत्मा का) ही अस्तित्व है।
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इसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। १२
(अध्याय २)
किसी काल में मैं (अहं अर्थात् आत्मा) नहीं था, ऐसा नहीं किंतु अवश्य था, अर्थात् भूतपूर्व शरीरों की उत्पत्ति और विनाश होते हुए भी मैं (अहं - आत्मा) सदा ही था / होता है।
वैसे ही तू नहीं था सो नहीं किंतु अवश्य था, ये राजागण नहीं थे सो नहीं किंतु ये भी अवश्य थे।
इसके बाद अर्थात् इन शरीरों का नाश होने के बाद भी हम सब नहीं रहेंगे सो नहीं किंतु अवश्य रहेंगे। अभिप्राय यह है कि तीनों कालों में ही आत्मरूप से सब नित्य हैं।
यहाँ बहुवचन का प्रयोग देहभेद के विचार से किया गया है, न कि आत्मभेद के अभिप्राय से।
(गीता शाङ्करभाष्य से)
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