कविता : 09-06-2021
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जिज्ञासा / कौतूहल,
अजीब दासताँ है ये....!
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जब मुझे कुछ भी, महसूस नहीं होता,
क्या मैं होता हूँ तब, ज़िन्दा या मुर्दा!
जब मुझे कोई भी, एहसास नहीं होता,
क्या मैं होता हूँ तब, इंसां या पत्थर!
जब मुझे कुछ भी महसूस नहीं होता,
जब मुझे कोई भी एहसास नहीं होता,
क्या होता है तब मेरा, वजूद या हस्ती कोई!
जो कह सके कि मैं हूँ, या कि, मैं हूँ ही नहीं!
क्या ये एहसास होना, और ये महसूस होना,
ये मुझसे हुआ करते हैं, या हुआ करता हूँ मैं!
सिर्फ़ ये दोनों ही हैं, अगर वजूदो-हस्ती भी,
और ये दोनों ही हैं, सिर्फ़ जिस्मो-जान अगर,
फिर है क्या मतलब, मेरे कुछ भी होने का,
फिर है क्या मतलब, मेरे कोई भी होने का!
तो फिर वो क्या, कौन है, जिसे ये लगा करता है,
कि मैं हूँ कौन? कोई, और क्या है, पहचान उसकी!
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