एक स्वप्न विचित्र सा!
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बहुत पहले मैं एक लड़की को जानता था!
वह मेरे शिक्षक की बेटी थी। तब मैं कक्षा 9 में पढ़ता था। वह 4-5 वर्ष की रही होगी। अकसर मैं उसके साथ खेलता था। सच तो यह है, कि जहाँ मैं रहता था, उस गाँव में पिताजी के अलावा कुछ इने-गिने नौकरी-पेशा लोग ही थे, जिन्हें रहने के लिए वहाँ पी.डब्ल्यू.डी. के क्वार्टर मिले हुए थे।
उस लड़की से सिर्फ पहचान थी, कोई लगाव नहीं था। शायद बच्चों की जैसे आपस में हो जाती है, वैसी ही उससे दोस्ती थी। मेरी ऐसी ही दोस्ती दो और लड़कियों से थी, जो उम्र में मुझसे तीन-चार साल छोटी थीं। उनके साथ मैं कभी-कभी बैडमिन्टन खेलता था। उनके छोटे भाई के साथ स्कूल जाता था, इसलिए उससे और उन दोनों बहनों से पहचान हो गई थी। उनसे लगाव या किसी प्रकार का कोई आकर्षण नहीं था। जिस लड़की के प्रति थोड़ा आकर्षण था, उससे मिलने की न तो कोई वजह थी, न बहाना।
हाँ मेरी बहनों से वह अकसर मिलती रहती थी।
गाँव में किसी घर में अखंड रामायण का पाठ हो रहा था, जहाँ वह दिखाई दी थी, तो मैं भी मित्र के साथ खुशी खुशी चला गया। वह सामने की पंक्ति में स्त्रियों और लड़कियों के साथ बैठी हुई थी, और मैं लड़कों और पुरुषों की पंक्ति में उसके सामने ही बैठा था। मेरा दोस्त उसके ठीक सामने बैठा हुआ था। कभी कभी हम दोनों की नजरें पल भर के लिए टकरा जाती थीं। उस समय या तो वह कोई चौपाई पढ़ रही होती, और मैं अपनी बारी आने की प्रतीक्षा में चुपचाप होता, या मैं कोई चौपाई पढ़ रहा होता और वह इधर उधर देखते हुए, अपनी बारी का इंतजार कर रही होती।
केवल
"मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवहुँ सो दसरथ अजरबिहारी।।
दीनदयाल बिरद संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।"
कहते समय हमारे सुर अवश्य मिल जाते थे।
वहाँ अभी अधिक समय बीता भी न था, कि एक बडा़ आदमी आया, और उसने मुझसे और मेरे दोस्त से भी रामचरितमानस ले ली, इसलिए हम वहाँ से लौट आए।
जब रामायण पूरी हो चुकी, तो हम प्रसाद लेने गए थे, और उस लड़की ने ही मुझे परोसा था। उसके साथ की स्त्री को शरारत सूझी। उसने मेरे सामने ही, कटाक्ष से मुझे देखकर उससे पूछा :
'ऐसा कौन सा भारी संकट तुझ पर आ गया है?'
मैं तो कुछ समझ न सका, लेकिन दूसरे लोग कोई खुलकर तो कोई मुँह ढाँपकर हँसने लगे थे।
इसके बाद मेरी उस लड़की से कभी मुलाकात नहीं हुई।
शायद मुझे यह सब याद न आता, यदि चार दिन पहले मुझे यह स्वप्न न आता। वह स्वप्न भी दो हिस्सों में आया।
पहला हिस्सा :
किसी स्थान पर मैं किसी जंगली रास्ते से गुजर रहा था।
अचानक एक गोल-मटोल, बहुत छोटी सी लड़की मेरे पास आई और मुझसे बोली :
"मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।"
मैंने कहा,
"ठीक है!"
लेकिन वह थक रही थी। उसके पास कोई खिलौना था। वह बोली :
"बप्पा को तुम उठा लो न! मैं थक गई हूँ!"
मैंने देखा, वह शायद गणेशजी की छोटी सी मूर्ति थी।
"ठीक है! मैंने कहा और उस प्रतिमा को अपने कंधे पर रख लिया। अभी हम थोड़ी दूर चले थे कि उसने कहा :
"लाओ मेरे बप्पा मुझे दे दो!"
और उसने मुझे झूठ-मूठ का लड्डू देते हुए कहा :
"यह लो बप्पा का प्रसाद!"
मैंने भी हाथ फैलाकर प्रसाद लेने का अभिनय किया, और वह "बाय" कहकर दौड़कर चली गई।
दूसरा हिस्सा :
अभी मैं आधी नींद में था, कि स्वप्न फिर शुरू हुआ।
मैं उसी रास्ते पर चला जा रहा था, कि वही लड़की फिर मिल गई! इस बार फिर उसके हाथ में उसके 'बप्पा' थे।
"मैं बहुत थक गई हूँ, क्या तुम मुझे उठाकर थोड़ी दूर चल सकते हो! मुझे बहुत नींद भी आ रही है।"
मैंने कहा :
"ठीक है।"
मैंने उसे गोद में उठा लिया और उससे कहा :
"बप्पा को यहीं छोड़ दें?"
वास्तव में मेरे कंधे दुखने लगे थे।
अभी मैंने वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि वह चीख मारकर रोने लगी :
"नहीं!"
और मेरी नींद तो टूटी, सपना भी टूट गया।
फिर मुझे ध्यान आया, यह तो वही लड़की थी, जिसके बालों में मैं फूल लगाना चाहता था, और मेरी बड़ी बहन मुझे देखकर हँस रही थी। बाद में उसने हँसते हुए यही बात माँ से भी कही थी।
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