Biological Weapons
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इस प्रकार कोई शक्तिशाली राष्ट्र अपने सामरिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास करता हुआ जैव-हथियारों के निर्माण में प्रवृत्त होकर किसी भयानक वायरस का आविष्कार करता है, जिसमें कोई दूसरा शक्तिशाली राष्ट्र प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उसे सहायता देता है। वैश्विक राजनीति की दृष्टि से ये दोनों वैसे तो परस्पर शत्रु समझे जाते हैं, लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि राजनीति में न तो कोई स्थायी शत्रु होता है, न स्थायी मित्र, इन दोनों के संबंध से पूरे विश्व के लिए कोरोना जैसा गंभीर संकट पैदा हो जाता है। यदि मनुष्य और राष्ट्र लोभ और भय से प्रेरित होकर कर्म करते हैं और उसके परिणाम की जान-बूझ कर या अज्ञान अथवा प्रमादवश उपेक्षा करते हैं तो उसके शुभ अशुभ परिणाम तो होंगे ही। और वे सभी को और हर किसी को आज या कल समान रूप से प्रभावित भी अवश्य ही करेंगे भी।
जिस ज्ञान (या विज्ञान, तकनीक आदि) की बुनियाद ही लोभ और भय पर गढ़ी गई हो, वह नैतिकता-अनैतिकता के दायरे में शुभ-अशुभ की उपेक्षा करते हुए केवल तात्कालिक रूप से भले ही उपयोगी प्रतीत होता हो, संशय और भ्रम से युक्त होता है।
कोरोना का वायरस और उसकी वैक्सीन बनानेवाले किन्हीं भी लक्ष्यों से प्रेरित हुए हों, उनके इस कर्म के परिणाम शुभ ही हों यह ज़रूरी नहीं है।
विचार, लोभ और भय से या विवेक से भी प्रेरित हो सकता है ।
किन्तु विचार फिर भी अपने या अपने समुदाय की दृष्टि से बँधा होता है।
विवेक लोभ और भय से रहित होता है और यथार्थ को देखने का एक उपक्रम होता है।
विचार का आधार और कसौटी है बुद्धि और तर्क, जबकि विवेक की कसौटी है नित्य और अनित्य (के भेद) का वह दर्शन, जो कि किसी भी आग्रह से मुक्त होता है।
यह कसौटी ही मनुष्य को अनायास लोभ और भय से मुक्त कर कर्म के लिए एक ऐसा आधार प्रदान करती है जो वैचारिक द्वन्द्व से रहित होता है। और उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य आदि के लिए स्वतंत्र अन्तर्दृष्टि भी देती है।
विचार कर्म है, विवेक दृष्टि है। न तो कर्म-रहित दृष्टि की, और न ही दृष्टि-रहित कर्म की कोई सार्थकता है।
सच तो यह है कि दृष्टि के अभाव में कर्म, और कर्म के अभाव में दृष्टि, दुःख का ही निरंतर और अंतहीन क्रम भर है।
यह दर्शन (philosophy नहीं), approach, realization ही प्रज्ञा है।
भारतीय ग्रन्थों में दर्शन को सांख्य, कर्म (मीमांसा), न्याय, योग, वैशेषिक और वेदान्त इन छः प्रकारों का कहा जाता है।
दर्शन (realization of truth) एक है, किन्तु उसे प्रतिपादित करने के छः तरीके।
वेद, पुराण, इतिहास (रामायण, महाभारत) इसे ही ज्ञान अर्थात् सूचना (information) की तरह प्रस्तुत करते हैं ।
यह ज्ञान अपरा विद्या अर्थात् विचार (thought) है, जो पुनः उपरोक्त दर्शन या दर्शकों से सुसंगत या विसंगत भी हो सकता है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि इन्हें जिस परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, वह परिप्रेक्ष्य प्रत्येक के लिए भिन्न भिन्न होता है।
वेदों से संबद्ध छः वेदाङ्ग क्रमशः :
शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दस्, ज्योतिष् कहे जाते हैं।
धर्म और अधर्म का उद्भव और मर्यादा दर्शन के ही अन्तर्गत उस परिसीमा तक है।
इस दृष्टि से वेद साहित्य हैं।
वेदाङ्ग ज्ञान है, और धर्म-अधर्म कर्म हैं।
इस सबकी तुलना किसी भी मान्यता, श्रद्धा, विश्वास, (faith) आदि से नहीं की जा सकती, और यदि की जाती है तो इसका ऐसा कोई सुनिश्चित परिणाम नहीं प्राप्त किया सकता, जिससे विचारकों के बीच के पारस्परिक अन्तर्विरोध मिट सकें।
मान्यता, श्रद्धा, विश्वास, आस्था, निष्ठा आदि विचार-प्रेरित तथा विचार तक सीमित कल्पित बौद्धिक धारणाएँ होती हैं, जबकि प्रज्ञा इन से नितान्त भिन्न यथार्थ दर्शन मात्र है।
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