चिन्ता का आध्यात्मिक पक्ष :
-----------------©----------------
चिन्ता के दो पहलुओं पर पिछले दो पोस्ट में लिखा।
लेकिन चिन्ता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और जिस पर एकाएक ध्यान ही नहीं जा पाता वह तीसरा पहलू है यह प्रश्न :
चिन्ता "किसे" होती है?
जिसे चिन्ता होती है, वह क्या है?
क्या वह शरीर, मन, या बुद्धि है?
चिन्ता की ही तरह क्या शरीर, मन और बुद्धि भी संवेदनशीलता के ही कारण, और संवेदनशीलता में ही नहीं प्रतीत होते?
फिर वह कौन / क्या है, जो संवेदनशील है?
क्या वह, सिर्फ संवेदनशीलता, बोधगम्यता और बोध-मात्र नहीं है? क्या इस संवेदनशीलता या बोधगम्यता में, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय की तरह, अनुभव (विषय-संवेदन), अनुभवकर्ता (विषयी) और अनुभव किए जानेवाले विषय की तरह तीन भिन्न भिन्न आयाम होते हैं?
अतः यह संवेदनशीलता, जिसमें संसार (और शरीर), तथा मन, बुद्धि, भावनाएँ तथा स्मृति / पहचान आते जाते हैं, क्या कोई व्यक्ति है? क्या यह संवेदनशीलता / बोध और बोधगम्यता स्वयं ही अपना अचल अविकारी (immutable) अधिष्ठान नहीं है?
तो चिन्ता किसे होती है?
तो चिन्ता क्या मन की एक वृत्ति ही नहीं है?
जैसे अस्मिता अर्थात् "मैं" का विचार, भावना या बुद्धि एक वृत्ति (mode of mind) है!
इस प्रकार चिन्ता जो कि वृत्ति-मात्र (mode of mind) है, और जहाँ से उठती है, जहाँ विलीन होती है, वह अन्तःकरण, हृदय या अन्तर्हृदय ही तो अस्तित्व की आत्मा है।
इस प्रकार अस्तित्व की अर्थात् अपनी और जगत की भी आत्मा यह अन्तर्हृदय ही है, जहाँ अहंकार (ego) के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।
***
No comments:
Post a Comment