चिन्ताक्रम
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चिन्ता को मारो गोली,
या फिर करो ठिठोली,
या कर लो अनबोली,
पर चिन्ता है अलबेली!
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चल दोस्त दारू पीते हैं!
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एक तरीका है :
स्वेट मार्डन की किताब :
"चिन्ता छोड़ो, सुख से जियो!"
पढ़ो!
नॉर्मन विन्सेन्ट पील की किताब भी सहायक हो सकती है!
मोटीवेशनल स्पीकर्स की मोटी मोटी किताबें पढ़ने का धैर्य न हो, तो वीडियो ही वॉच कर लें!
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चिन्ता "क्या" है, इस पर अनेक चिन्तकों ने विस्तार से विचार किया है।
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हम चिन्ता "क्यों" करते हैं, इस पर भी बहुत से मनोवैज्ञानिकों ने अनुसंधान किया है!
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हम "किसकी", अर्थात् किस विषय में चिन्ता करते हैं, इस ओर ध्यान देना भी उपयोगी हो सकता है।
प्रश्न यह भी है, कि क्या वाकई हम चिन्ता करते हैं, या चिन्ता हमें अचानक, अनपेक्षित रूप से वैसे ही होने लगती है, जैसे ज़ुकाम या फ्लू हो जाता है!
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है, कि चिन्ता क्या एक स्वैच्छिक गतिविधि होती है, या अनैच्छिक गतिविधि होती है?
क्या हमें एक ही चिन्ता होती है?
मतलब यह, कि क्या किसी एक ही सुनिश्चित क्षण में हमें एक से अधिक चिन्ताएँ हो सकती हैं?
स्पष्ट है कि किसी भी समय पर एक से अधिक चिन्ताएँ हम पर हावी नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से हमारा मन ठिठक जाता है, और तब उन दोनों में से जो चिन्ता अधिक महत्वपूर्ण या शक्तिशाली होती है, वही हमें वश में कर लेती है!
उदाहरण के लिए, जब हमें भूख भी लगी हो, और नींद भी आ रही हो, लेकिन हम बस या ट्रेन में बैठे हुए न तो सो पा रहे हों, न खाने के लिए ही कुछ पास हो, तो यह चिन्ता हमारे लिए अधिक आवश्यक होती है कि पहले सावधानी से यात्रा पूरी हो जाए।
इसलिए चिन्ता दूर तो हो सकती है, लेकिन चिन्ता को किसी प्रयास से ही दूर किया जा सकता है। इसलिए यदि हो सके तो ऐसा कोई प्रयास किया जाना चाहिए न कि चिन्ता!
यह तो हुआ चिन्ता का व्यावहारिक पक्ष।
किन्तु चिन्ता का एक मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है, क्योंकि चिन्ता मन से जुड़ा तत्व है।
जब जीवन हमारे सामने ऐसी कोई नई चुनौती प्रस्तुत करता है, जिसे न तो हम अपने ज्ञात / ज्ञान के, और न ही अपने पहले के किसी और अनुभव के आधार से समझ पाते हैं, तो हम उस चुनौती का सामना करने के लिए या तो किसी से सहायता लेते हैं, या उसके स्वरूप का आकलन करने के लिए पहले उस चुनौती पर अपना ध्यान एकाग्र करते हैं। हम पूरी स्थिति को ठीक ठीक समझने के लिए अपने इंद्रिय-ज्ञान का सहारा लेते हैं, और इसके बाद बुद्धि और फिर स्मृति का सहारा लेते हैं।
किन्तु जैसा कि अंतिम पैराग्राफ़ में कहा गया है। जब जीवन हमारे सामने ऐसी कोई सर्वथा नई चुनौती प्रस्तुत करता है, तब आवश्यक नहीं, कि इनमें से किसी भी उपाय से उस चुनौती का समुचित प्रत्युत्तर दिया ही जा सके।
चिन्ता करने से ही यदि हम किसी चुनौती का सामना सफलता-पूर्वक कर सकते हैं तो चिन्ता की अवश्य ही अपनी उपयोगिता है । किन्तु जब मन (जीवन के संबंध में) सीखने के लिए उत्सुक और उत्कंठित होता है तो चिन्ता की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती। उस समय मन अतीत-रूपी किसी ज्ञात, अथवा ज्ञान रूपी आशा या भय से मुक्त होता है, और तब हम आश्चर्यजनक रूप से अकस्मात् ही जीवन की किसी भी चुनौती का सामना तत्क्षण और उत्साह पूर्वक करते हैं। तब हमें सफल होने या न होने की चिन्ता भी नहीं रहती, और चिन्ता अनायास, अप्रासंगिक और अनावश्यक भी हो जाती है।
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