कविता : 05-06-2021.
---------------©-------------
संवाद के वे सेतु टूटे,
संवाद के संदर्भ छूटे,
संवाद की संभावनाएँ,
भी विलीन हो गईं !
बन गई थी एक आदत,
चलते चलते, साथ साथ,
राह के मुड़ते ही मानों
वह भी जैसे खो गई!
दो दिशाएँ, दो पथिक,
कुछ दूर तक दोनों चले,
मोड़ के आते ही दोनों,
राह अपनी मुड़ चले!
कोई तभी तक साथ चलता,
राह जब तक एक हो,
मोड़ पर वह छोड़ देता,
जब न मंजिल एक हो!
इसमें क्या शिकवा-गिला,
इसमें क्या ग़म या खुशी,
यही जीवन की हक़ीक़त,
यही तो है ज़िन्दगी!
***
No comments:
Post a Comment