June 09, 2021

प्रवाह-पतित

कविता : 09-06-2021

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वृक्ष से टूटा हुआ पत्ता,

बहती हुई निर्मल नदी, 

अभी वह हरा ही था,

अभी वह गिरा ही था,

अभी तो देखे ही थे,

 उसने, दो-चार ही दिन !

धीरे-धीरे, पर उमंग में, 

नृत्य सा करता हुआ,

उस हवा से बात करता, 

जिसने गिराया था उसे, 

छू लिया जब अंततः तो,

नदी-जल की सतह को, 

चल पड़ा उल्लास में, 

बहता हुआ, पानी के संग,

बहता हुआ ही साथ साथ,

खेलता, मछलियों के संग,

क्या पता, क्या था भविष्य,

अतीत की, स्मृतियाँ थी बस,

न आशा थी, न कोई भय,

वहाँ तो था उत्साह बस,

और फिर बहता हुआ ही,

पहुँचा जब नदी के तट,

पल भर तो ठिठका रहा,

देखा वहाँ वही विटप, 

जिससे गिरा था टूटकर,

और तब ही गिरा एक, 

और पत्ता जीर्ण शीर्ण,

पका हुआ, प्रौढ़, वृद्ध! 

दो पल रहे, दोनों विस्मित,

आलिंगित रहे दो पल, 

वृक्ष से यूँ टूट कर भी, 

इस मिलन में हर्षचकित। 

चल पड़े फिर साथ साथ, 

थाम इक दूजे का हाथ,

पुनः किन्तु हो गए अलग, 

बह चले वो, अपनी राह, 

वहाँ न था विषाद, न शोक, 

उनका वह प्रकृति-लोक,

जन्म-मृत्यु से परे, 

चिरंतन, अमृत-आलोक! 

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