माया और चिन्ता :
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दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। १४
(श्रीमदभगवद्गीता अध्याय ७)
किसी संत कवि ने कहा है :
ब्रह्मा के ब्रह्माणी भई, शंकर के भई शिवानी,
विष्णू के लक्ष्मी भई माया, महाठगिनी हम जानी।
ये संत कवि कितने भी महान रहे हों कवि भी तो थे ही।
कवि होने के कारण उनकी बुद्धि शायद मोहित हो गई होगी, या मोहित न भी हुई हो, तो उन्हें पता ही रहा होगा कि कर्म क्या है तथा अकर्म क्या है, क्योंकि इस बारे में प्रायः हर किसी की बुद्धि मोहित हुआ करती है:
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। १६
(गीता, अध्याय ४)
चिन्ता चिन्मयी माया की एक अभिव्यक्ति है, और चिन्माया ही जगज्जननी है, जगन्माता है। यह माता कभी कभी अपने उन शिशुओं से उस समय छल करती प्रतीत होती है, जब वे उसका केवल अनादर ही नहीं, प्रमाद व अज्ञान से ग्रस्त होने से उपहास और अवमानना भी करने लगते हैंं, उसे उसके गौरव से वंचित कर अपने अधिकार की उपभोग की वस्तु मान लेते हैं ।
और तब इसका दंड उन्हें प्राप्त होता है। फिर भी कभी कभी वे नहीं चेतते और माया पर महाठगिनी होने का दोषारोपण करने लगते हैं।
किन्तु एक अन्य भक्त कवि आदि शंकराचार्य इस विषय में सचेत करते हैं :
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।३
(देव्यापराधक्षमापन-स्तोत्रम्)
यह "छल" क्या है?
यही वह दंड है जो माता के प्रति ऐसी बुद्धि रखनेवालों को प्राप्त होता है। यह है मोहित और भ्रमित, दूषित और कुटिल बुद्धि।
कल्पना से भी माया का उपहास करना गलतफहमी नहीं है, तो और क्या है? किन्तु ऐसा भी तो हो सकता है कि संत कवि को यह गलतफहमी न हुई हो और उन्होंने कविता की पृष्ठभूमि के रूप में माया को महाठगिनी कहा हो!
तो, चिन्ता का रोचक पक्ष यह भी है :
अज्ञश्च अश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। ४०
(गीता अध्याय ४)
इसलिए चिन्ता कभी कभी भूल से, केवल कोरे अज्ञान, भ्रम या गलतफ़हमी से भी पैदा हो जाती है।
यही मायारूपी गुणमयी माया के तीन तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण हैं, जो क्रमशः शिव, विष्णु तथा ब्रह्मा जैसे बड़े बड़े देवताओं को भी मुग्ध कर देते हैं।
यह हुआ औपचारिक सत्य ।
जब इन बड़े बड़े देवताओं की चेतना परमात्मा से हटकर अज्ञान और मोह से ग्रस्त हो जाती है, तो वे भी साँसारिक मनुष्यों जैसे ही माया के वश में हो जाते हैं। किन्तु जिस मनुष्य का चित्त या मन परमात्मा के ध्यान में संलग्न और रमा होता है, उसका मन साँसारिक विषयों की तरफ क्यों जाएगा!
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।। ८
(गीता अध्याय ८)
अर्जुन ने इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा था :
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।। १७
(गीता, अध्याय १०)
यह हुआ चिन्ता से निवृत्ति होकर चिन्तन, चिन्तन से अनुचिन्तन, तथा अनुचिन्तयन् से परिचिन्तयन् की दिशा में अग्रसर होना।
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बोलो, माया मैया की!
--- जय हो!!
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